वो बुजुर्ग महिला……

एक सच्ची घटना

 आज रास्ते से जा रहा था कि मेरी नजर एक बुजुर्ग महिला जो जुते पालिश का काम कर रही थी उस पर पडी । उम्र कुछ 65-70 की

मैने पुछा माई इस उम्र मे यह काम  क्यो कर रहे हो आप बुजुर्ग हो आराम करो। 

 माई उदास होकर बोली बेटा क्या करे हमने सपने तो बहुत देखे थे लेकिन बेटो ने घर से निकाल दिया । 

मेरे पति अब बहुत बुढे हो चुके है तो वो अभी रोडवेज के उस किनारे बैठै

  हैं। जब तक हमसे कुछ होगा तब तक करगे बाकी उपर वाले की मर्जी । 

मैंने पुछा लेकिन माई आपके बेटो ने आपके साथ ऐसा क्यु किया । 

 माई बोली – बेटा बहुत ख्वाब देखे थे हर प्रकार से उनकी मदद की और अच्छे से अच्छे स्कुल मे पढाया । एक बेटे ने विदेश मे पढ़ाई करने के बाद लव मैरिज करली और एक शराब का आदी हो गया । हमे घर से निकाल दिया ।  

माई आपके दर्द को समझ सकता हु आप यह मेरे 100₹ रख लो। 

माई ने कहा किस लिए ? 

 मैंने कहा भगवान खुद धरती पर नही आ सकता इसलिए मां को भेजा है । लेकिन शर्म आनी चाहिए आपके बेटो को जो आपको इस हालत मे छोड़ दिया । लेकिन आप कोई भीख नही माग रहे बल्कि मेहनत से कमा रहे हो । 

जब भी आपको किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे अपना बेटा समझकर बुला लेना । और मेरे जैसे हजारो लोग आपके साथ है । 

  माई “- रोने लग गई । कहने लगी भगवान किसी ने किसी को जरूर भेजते जो सगे बेटे तो नही पर उनसे बढकर होते है मेरा आशिर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं।
पप्पू गोल्ड✍

मेरी सोच मेरा एहसास…… 

एक बहन ने अपने भाई के लिए बहुत ही अच्छा पैगाम लिखा है….उस बहन को मेरा प्रणाम 


इस राखी पर भैया ,मुझे बस

यही तोहफा देना तुम ,

रखोगे ख्याल माँ-पापा का , बस यही इक

वचन देना तुम ,

बेटी हूं मैं , शायद ससुराल से रोज़ न आ

पाऊंगी ,

जब भी पीहर आऊंगी , इक मेहमान बनकर

आऊंगी ,

पर वादा है, ससुराल में संस्कारों से,

पीहर की शोभा बढाऊंगी ,

तुम तो बेटे हो , इस बात को न

भुला देना तुम ,

रखोगे ख्याल माँ -पापा का बस यही वचन

देना तुम ,

मुझे नहीं चाहिये सोना-चांदी , न चाहिये

हीरे-मोती ,

मैं इन सब चीजों से कहां सुःख पाऊंगी

देखूंगी जब माँ-पापा को पीहर में खुश

तो ससुराल में चैन से मैं भी जी पाऊंगी

अनमोल हैं ये रिश्ते , इन्हें यूं ही न

गंवा देना तुम ,

रखोगे ख्याल माँ-पापा का , बस

यही वचन देना तुम ,

वो कभी तुम पर यां भाभी पर

गुस्सा हो जायेंगे ,

कभी चिड़चिड़ाहट में कुछ कह भी जायेंगे ,

न गुस्सा करना , न पलट के कुछ कहना तुम ,

उम्र का तकाजा है, यह

भाभी को भी समझा देना तुम ,

इस राखी पर भैया मुझे बस

यही तोहफा देना तुम ,

रखोगे ख्याल माँ-पापा का , बस

यही वचन देना तुम ।
पप्पू गोल्ड✍

शादी योग्य लड़की का चरित्र चित्रण🚺🚺🚺🚺🚺🚺🚺🚺🚺🚺🚺

एक मेरी सहेली थी उसका नाम संजोली था ।वह दिखने मे आकर्षक थी पर रंग साँवला था । संजोली की आज सगाई का दस्तूर था । रीति रिवाज के अनुसार अँगूठी पहनाई गई अब सब लोग भोजन के लिये टेबल पर बैठ चुके थे ।वहॉ संजोली अपनी अन्य सखियों के साथ बैठी थी ।सास ,ननद जेठानी भी उसके पास बैठे थे । शर्मीला स्वभाव होने की वजह से नीची नजर किये सिमटी सिकुड़ी सी बैठी थी ।

जैसे तैसे खाना समाप्त कर वह अपने कमरे मे चली गई व सहेलियों से बातचीत शुरू करने ही वाली थी कि इतने में होने वाली सासूँ माँ ,ननद व जेठानी कमरे में आयी । सासूमॉ संजोली के पास बैठते हुए बोली, देखो संजोली अब शादी में कुछ ही महीने बचें हैं इसलिये धूप में बाहर ना निकलना व हर रोज बेसन, दूध ,केसर और हल्दी का लेप लगाया करना। उससे तुम्हारा साँवला रंग साफ़ हो जाएगा । संजोली ने “जी ” बोलकर हाँ में सिर हिला दिया ।अब जेठानी भी कहॉ पीछे रहने वाली थी । वह चहकते हुए बताने लगी अगर नींबू और टमाटर का रस भी लगाओ तो रंग और साफ़ हो जाएगा। देवर जी को गोरे रंग की लड़कियाँ पसंद हैं । हँसी हँसी मे बात आई गई हो गई ।

 धीरे-धीरे कर के शादी के दिन नज़दीक आने लगे ।जब भी ससुराल से फ़ोन आता तो दोपहर मे धूप मे नही जाने का ,ऑफ़िस से जल्दी आने का व फ़ेस पैक लगाने का ,ऐसी ही सलाहे मिलने लगी।

उसका होने वाला पति विकी जब भी उसे फ़ोन करता तो अधिकतर, उसके साँवलेपन को ले कर कुछ ना कुछ छींटाकशी कर देता था और कहता, संजोली मुझे तुम्हारे साँवले रंग से कोई शिकायत नही है, मगर मम्मी चाहती है कि बहू का रंग गोरा हों। भाभी तो एकदम दूधियॉ रंग की हैं, तुम थोड़ी साँवली हो,इसलिये वो जो भी  गोरा करने के लिये नुस्खे देती हैं उसे अमल कर लिया करो आख़िर ख़ूबसूरत तो तुम ही दिखोगी।

संजोली बहुत कुछ जवाब देना चाहती मगर मम्मी की कुछ भी ना बोलने की दी गई हिदायतें की वजह से चुप रह जाती। इस वजह से अंदर ही अंदर कुढन होने लगती व सारी खीज मम्मी पर निकालती ।  यदि कुछ बोलने की कोशिश करती तो मम्मी कहती, अरे इतने अच्छे पैसे वाले घर में रिश्ता हो रहा है, सिर्फ़ इसलिए कि तू अच्छी कंपनी मे अच्छे पद पर नौकरी करती है वरना एक साधारण स्टेशन मास्टर की बेटी की शादी का रिश्ता कभी भी यहॉ ना जुड पाता ।  तू देख, वो कितने अमीर लोग हैं । बडे बडे लोगो के साथ उठना बैठना है । सॉशियल नेटवर्क तो कितना बड़ा है । एक ही झटके मे सारा काम हो जाता है । राज करेगी राज !! इतनी अच्छी क़िस्मत पाई है । 

 तू बहुत लकी है जो तेरे सॉवलेपन के बाद भी उन्होंने तुम्हें स्वीकारा है। संजोली बेचारी मन मारकर चुप हो जाती। सोचती की बदलते वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे दिन नज़दीक आने लगे, सासूमॉ और विकी का रंग को लेकर उस पर पर दवाब बढ़ने लगा।

संजोली ये सब नजरअंदाज करना तो चाहती मगर कर नही पाती। फिर ख़ुद ही अन्दर ही अन्दर और ज्यादा चिढ़ने व कुढने लगी। इस वजह से रंग खिलने की बजाय मुरझाने लगा।

शादी से दस दिन पहले विकी का जन्मदिन था। विकी ने पार्टी में संजोली को भी बुलाया ।  रोज की तरह वही रंग को लेकर हिदायतें दी जाने लगी ।

सासू माँ ने पहले ही फ़ोन पर समझा दिया था कि ब्यूटी पार्लर होती हुई पार्टी में आए। माँ ने भी छोटे भाई के साथ संजोली को पार्लर भेज दिया।

 संजोली जब पार्टी में भाई के साथ पहुँची तो बिना मेकअप (नेचुरल चेहरा) के !! उसे देखते ही, सासूमाँ उस पर गुस्सा होने लगी और जेठानी को बुला कर बोली कि इसे बाथरूम में ले जाओ और अपने मेकअप से तैयार कर दो । मगर संजोली नही गयी। वहीं खड़ी रही। सासूमॉ के गुस्से का पारा और चढ़ गया और उसके हाथ खिंचते हुये बोलीं जाती हो या नही । संजोली टस से मस ना हुई । अब उसकी सासूमॉ चिल्लाने लगी कि न रंग है न रूप, फिर तुम्हें इतना घमंड ? गलती हम लोगो की ही है जो हम ने अपने से नीचे घर मे रिश्ता जोड़ा है ।सिर्फ इसलिये कि तुम अच्छी कम्पनी मे अच्छे पद पर हो ।

इतने में हल्ला सुनकर वहॉ विकी भी आ गया और संजोली का हाथ पकड़ कर ज़बरदस्ती बाथरूम की तरफ़ ले जाने की कोशिश करने लगा ।

संजोली ने उसके हाथ से अपने हाथ को आज़ाद करवाते हुए सासूमाँ की तरफ़ बढी और बोली,हाँ, मैं साधारण घर से हूँ।मेरा रंग साँवला है। मुझे घमंड तो नही मगर गर्व है अपने आप पर। मैं अपनी कड़ी मेहनत से आज इस मुकाम पर हूँ । मेरे घरवाले आपके जितने पैसो की तरह अमीर तो नही है लेकिन दिल की अमीरी कूट कूट कर भरी है । किसी भी इंसान को अपने जैसा इंसान समझते हैं । उन्हें रंग-रूप के आधार पर नही गुणों से तोलते हैं । और विकी तुम्हारी कोई गलती नही है, क्योकि तुमने बचपन से जो देखा है उसी के अनुसार ही तो सोचोंगे । तुम्हारे परिवार वालो व तुम्हारी नजर मे औरत का साज श्रंगार होना तो बहुत जरूरी है क्योकि वह तो एक घर मे सजावटी वस्तु की तरह है । ऐसी मेरी पहचान नही चाहिये ।

ऐसा कहते हुए संजोली मे अपनी अँगूठी निकाल कर विकी की मॉ के हाथ में थमा दी और अपने छोटे भाई का हाथ पकड़ कर, पार्टी हॉल से बाहर निकल गयी, 

 एक मस्त हवा के झोंके की तरह ,एक स्वतंत्र पक्षी की तरह जिसे अभी बहुत उड़ान भरनी है और इंतजार ऐसे शख़्स का जो उसे हमसफर उसके गुणों के आधार पर बनाये न कि रंगरूप या पैसो से ।

📝लिखने मे गलती हो तो गलती का एहसास जरूर कराइयेगा 🙏

आपका भाई आपका दोस्त

पप्पू गोल्ड✍

रिश्ता📝

By Shalu Duggal | 2 September 2016

‘‘मांये देखो गोवा के टिकट, अगले हफ्ते हम सब गोवा जा रहे हैं,’’ सूरज मेरे कमरे में आते ही खुशी से बोला. उस के पीछेपीछे मेरी बहू रीता और पोता मयंक भी मेरे कमरे में आ गए.

‘‘दादी पता है वह बहुत बड़ा समंदर है. हमारी टीचर ने बताया था… कितना मजा आएगा न?’’ कहते हुए मयंक ने मुझे खुशी से गले लगा लिया. मेरी बहू ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, इस बार मैं आप की एक नहीं सुनूंगी. आप को भी गोवा में जींस पहननी होगी.’’

‘‘चल पगली, मैं और जींस… दुनिया देखेगी तो हंसेगी मुझ पर,’’ मैं ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा.

‘‘मां इस बार आप को रीता की बात माननी ही होगी,’’ सूरज ने मेरी गोद में सिर रख कर कहा.

‘‘अच्छाअच्छा सोचूंगी, अभी चलो सब सो जाओ बहुत रात हो गई है.’’ सब के अपने कमरों में जाने के बाद मैं खुशी के मारे सो ही नहीं पाई. मैं ने कभी समंदर नहीं देखा था. अगले हफ्ते समंदर के किनारे बैठी होऊंगी, सोचसोच कर मन नाच रहा था. फिर यह भी सोचा कि कल सत्संग में जा कर सब को बताऊंगी कि मैं गोवा जा रही हूं. सुबह रीता मयंक के स्कूल जाने के बाद मुझे सत्संग के लिए छोड़ कर औफिस चली गई. मुझे अपनी सहेलियों को गोवा जाने की बात बताने की बहुत जल्दी थी. सत्संग का तो बहाना होता है. यहां आने वाली सब औरतें आमतौर पर घर की बातचीत कर के ही वक्त बिताती हैं. मयंक ने जब से स्कूल जाना शुरू किया है मैं भी वक्त गुजारने के लिए कभीकभी यहां आ जाती हूं. सत्संग शुरू हो चुका था. मैं ने धीरे से अपने पास बैठी शीला से कहा, ‘‘सुन, अगले हफ्ते सत्संग में नहीं आ पाऊंगी. मैं अपने बेटेबहू के साथ गोवा जा रही हूं.’’

‘‘क्या गोवा? पिछले साल तू शिमला गई थी इस बार गोवा, तेरे तो मजे हैं,’’ शीला ने कहा.

‘‘गोवा… अरे वाह, सूरज की मां सुना है कि समंदर के किनारे शाम का मजा ही कुछ और होता है. मेरे भाई के बेटाबहू गए थे, उन्होंने बताया,’’ आगे बैठी नीरजा ने अपनी गरदन पीछे घुमा ली. धीरेधीरे सत्संग छोड़ कर मेरे आसपास की औरतों ने एक छोटा सा घेरा बना लिया. मैं गर्व से फूली नहीं समा रही थी.

‘‘तू इतना लंबा सफर कर पाएगी? गोवा बहुत दूर है, पूरे एक दिन का सफर है,’’ इस बार शीला के साथ बैठी राजरानी ने कहा.

‘‘तू बुरा न मानना, मैं ने तेरे से ज्यादा दुनिया देखी है. तेरे बेटाबहू बहुत सयाने हैं,’’ साथ बैठी दीदी ने कहा. वे मेरी जानपहचान की औरतों में सब से बड़ी थीं, इसलिए सब उन्हें दीदी ही कहते थे. कोई उन का नाम जानता ही नहीं था. मैं ने उन से कहा, ‘‘क्यों क्या हुआ दीदी, आप ऐसा क्यों कह रही हो?’’

‘‘तू तो बस बच्चों की तरह घूमनाफिरना सुन कर खुश हुए जा रही है. जरा सोच तेरी उम्र में तुझे तीर्थ करवाने की जगह शिमला, गोवा क्यों घुमा रहे हैं तेरे बेटाबहू? कुछ नहीं, बस उन को एक आया चाहिए अपना बच्चा संभालने के लिए.’’

‘‘क्या बात कर रही हो दीदी, मेरा बेटा मेरी बहुत इज्जत करता है. मुझे आया क्यों समझेगा?’’ मैं ने थोड़ी नाराजगी दिखाते हुए कहा. ‘‘अरे बेटा तो तेरा है पर अब बहू के चक्कर में उस को भी कहां कुछ समझ आ रहा है. दरअसल, बच्चा संभालने के लिए आया पर होने वाला खर्च बचा रहे हैं दोनों.’’ इतने में सत्संग खत्म हो गया और कीर्तन शुरू हो गया. दीदी उठ कर आगे चली गईं. उन के जाने के बाद नीरजा बोली, ‘‘वैसे दीदी गलत नहीं कह रही थीं. तू ने ही बताया था न कि शिमला में सूरज और रीता देर रात तक माल रोड पर घूमते थे और तू और मयंक उन के आने से पहले ही सो जाते थे. तू ही बता, अगर तू नहीं जाएगी तो मयंक को वहां कौन संभालेगा?’’

मेरे कुछ कहने से पहले ही शीला ने अपनी बात कह डाली, ‘‘देख, दीदी की बात कड़वी है पर सच है. तू इतने सालों से घर संभाल रही है. पहले सूरज को पाला और अब मयंक की सारी जिम्मेदारी तेरे सिर डाल कर तेरी बहू काम पर चली जाती है. अरे इस उम्र में बच्चे संभालना आसान नहीं. अब मुझे देख, मैं ने तो साफ कह दिया अपनी बहू से कि अपने बच्चों को खुद संभालो. मुझे तो अब अपने तरीके से जीने दो. भाई, तुझे उन की कोई जरूरत नहीं पर उन को तेरी जरूरत है. उन के औफिस जाने के बाद तू पूरे घर और बच्चे की रखवाली जो करती है, क्यों नीरजा बहन…?’’

‘‘और नहीं तो क्या. खुद को देख जरा, सत्संग खत्म होने से पहले ही घर भागना होता है तुझे, मयंक स्कूल से जो आ जाता है. तेरी बहू सुबह की निकली रात को घर आती है,’’ नीरजा बोली, ‘‘अब और क्या कहूं तू ही बता, सारा घर तो तेरी बहू ने अपने हाथ में ले रखा है. मैं ने तो अपने बेटे से कह दिया था तू जाने तेरी बीवी जाने. मुझे हर महीने खर्चा दे बस. पर तू तो सत्संग के दान के पैसे भी बहू से ले कर आती है.’’ मैं उन सब के बीच चुपचाप उन की बातें सुन रही थी. मेरी ही गलती थी कि मैं ने अपने बेटेबहू की तारीफ करतेकरते अपने घर की सारी बातें इन को बता रखी थीं. पर सब बातों का यह अर्थ भी निकल सकता था, कभी सोचा नहीं था. अब भी वक्त है अपने बारे में सोच जरा. तभी सत्संग खत्म होते ही जयजयकार से हौल गूंज उठा और मैं बातोंबातों में भूल गई कि मयंक घर आ गया होगा. जल्दी से घर के लिए औटो किया पर सारे रास्ते दिमाग में नीरजा और शीला की बातें ही घूमती रहीं. घर पहुंची तो मयंक बाहर ही बैठा था.

‘‘क्या हुआ दादी, कहां रह गई थीं आप?’’ उस ने पूछा पर मैं ने कुछ नहीं कहा, बस घर का ताला खोल दिया.

शाम को रीता ने आते ही मुझ से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, आज आप सत्संग से देर में आईं? सब ठीक है न, औटो नहीं मिला था क्या?’’ रीता का इस तरह के सवाल करना मुझे अच्छा नहीं लगा. मन में आया कि कह दूं कि मैं नौकरानी हूं क्या, जो अपने 1-1 पल का हिसाब दूं? पर मैं चुप रही.

रीता फिर बोली, ‘‘क्या बात है मां, आप की तबीयत ठीक नहीं क्या या कोई और बात है?’’

‘‘नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है,’’ इस से ज्यादा मेरा कुछ कहने का मन ही नहीं हुआ. रात को सूरज भी कमरे में आया पर मैं जानबूझ कर आंखें बंद किए रही ताकि उसे लगे कि मैं सो रही हूं. सारी रात अजीब कशमकश. मेरी सहेलियां जो कह रही थीं वह मुझे सच सा लग रहा था. सही तो कह रही थीं. अगर मैं मयंक का ध्यान न रखूं तो क्या रीता काम पर जा पाएगी? घर की ओर से बेफिक्री सिर्फ मेरी वजह से ही तो है. सच में रीता ने मुझे घर का चौकीदार बना दिया है. कल मैं कह दूंगी सूरज से कि अपने बेटे की जिम्मेदारी खुद उठाओ. अब मुझे मेरे हिसाब से जीने दो. सच ही तो है, कहीं भी जाना हो रीता के हिसाब से जाना होता है. सूरज की और अपनी कमाई का हिसाब रीता ही रखती है. सूरज उसी से पैसे लेता है. मुझे भी सत्संग आनेजाने या दान के पैसे उस से ही मांगने पड़ते हैं. कल तक मेरी सास ने घर अपने हाथ में लिया हुआ था आज रीता ने… मैं तो कल भी नौकरानी थी और आज भी. मेरी आंखों से आंसू भी बहने लगे. यही सोचसोच कर मैं रात में न जाने कब सो गई पता ही नहीं चला. सुबह रसोई में खटरपटर की आवाज से नींद खुल गई. घड़ी पर नजर गई तो 8 बज चुके थे. हाय इतनी देर तक सोती रही. फिर पलंग से उठी तो ऐसा लगा जैसे सिर पर किसी ने सौ किलोग्राम का भार रख दिया हो. कल रात भर सोचती रही शायद इसीलिए झूठ का सिरदर्द सच हो गया. मयंक तो स्कूल चला गया होगा, सोचती मैं जल्दीजल्दी बाहर आई तो देखा रीता रसोई में थी. मुझे देख कर बोली, ‘‘मां आप जाग गईं, आप की तबीयत कैसी है? आप बैठिए, मैं आप के लिए अदरक वाली चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर रीता चाय बनाने लगी.

तभी सूरज भी आ गया और बोला, ‘‘मां आप का सिरदर्द कैसा है?’’ मैं ने कुछ न कहा तो वह फिर बोला, ‘‘मां लगता है तबीयत ज्यादा खराब है. रीता, आज मां को डाक्टर को दिखा आना.’’

‘‘आप फिक्र मत करो मैं दिखा आऊंगी,’’ रीता ने मुझे चाय पकड़ाते हुए कहा.

‘‘क्यों तुम्हें आज औफिस नहीं जाना?’’ मैं ने रीता से पूछा.

‘‘नहीं मां, आप की तबीयत ठीक नहीं, इसलिए मैं ने आज छुट्टी ले ली,’’ रीता कहती हुई रसोई में चली गई. ‘हां अगर मैं बीमार हो गई तो घर की रखवाली कौन करेगा?’ मैं ने मन ही मन सोचा. थोड़ी देर बाद हम डाक्टर के पास थे. रीता परची कटवाने के लिए लाइन में लगी थी और मैं एक ओर रखी बैंच पर बैठ गई. तभी एक जानापहचाना चेहरा सामने वाली बैंच पर बैठा नजर आया. क्या यह शिखा है? नहींनहीं श्खि तो लखनऊ में रहती है. लग तो यह शिखा ही रही है, यह सोच कर मैं अपनी जगह से उठ कर उस के पास चली गई. और उस से बोली, ‘‘शिखा… तुम शिखा ही हो न? पहचाना मुझे, मैं शारदा…’’

‘‘अरे शारदा तू,’’ कहते ही वह मेरे गले से लग गई. कितने सालों बाद देखा तुझे. कैसी है तू और तेरा छोटू सूरज कैसा है?’’ शिखा खुशी से मानो उछल ही पड़ी.

‘‘सूरज ठीक है, अब तो उस का छोटू भी हो गया. मयंक नाम रखा है उस का.’’

‘‘अरे वाह, बड़ा प्यारा नाम है,’’ वह बोली.

‘‘हां वह तो है, मैं ने जो रखा है उस का नाम. तू सुना, तू यहां कैसे?’’ मैं ने उस ने पूछा.

‘‘मैं पिछले 2 सालों से यहां हूं और एक वृद्ध आश्रम चला रही हूं. चला क्या रही हूं समझो अपना टाइम पास कर रही हूं.’’

‘‘मतलब…?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तू तो जानती है मैं ने शादी नहीं की. सारी उम्र तो अच्छे से गुजर गई, खूब कमाया पर अब समझ में आया कि जो कमाया वह साथ तो ले कर जाना नहीं, तो थोड़ी सेवा ही की जाए. बस कुछ सालों से समाजसेवा कर रही हूं और पिछले 2 सालों से तेरी उम्र के लोगों की देखभाल कर रही हूं, जिन के बच्चे उन्हें अपने साथ नहीं रखते. कुछ तो ऐसे हैं जो अपने बच्चों के साथ नहीं रहना चाहते. बस उन्हीं में से कुछ को यहां ले कर आई थी,’’ बता कर उस ने साथ बैठे कुछ लोगों की ओर इशारा किया. बैंच पर बैठे उन लोगों की ओर देख कर मेरा मन बैठ सा गया. जरा देखो तो कैसे बच्चे हैं, अपने मांबाप को नहीं रख सकते. भला हो शिखा का जो इन की देखरेख कर रही है.

‘‘अरे तू तो बहुत नेकी का काम कर रही है,’’ मैं ने खुशी से कहा.

‘‘बिलकुल. मेरे पास पैसा था. मेरे रिश्तेदारों ने मुझे बहुत बहलाने की कोशिश की पर मैं ने बस अपने मन की सुनी और इस काम में लग गई. तू भी कभीकभी आया कर. उन लोगों से बात कर. इस से उन को भी अच्छा लगेगा और तुझे भी.’’

‘‘मां परची कटवा ली. चलो नंबर आने ही वाला है,’’ रीता ने तभी आ कर कहा.

‘‘शिखा, ये मेरी बहू है रीता… रीता, ये मेरी बचपन की सहेली है, शिखा.’’ रीता ने पैर छू कर शिखा को प्रणाम किया, तो शिखा बोली, ‘‘अरे शारदा, तेरी बहू तो बहुत सुंदर है और संस्कारी भी वरना आजकल बच्चों के पास कहां टाइम है जो अपनी सास को ले कर अस्पताल तक आएं. चल अब तू जा. पर हां, ये मेरा नंबर ले ले. फोन करती रहना.’’ डाक्टर को दिखा कर हम घर आ गए. रीता ने कहा कि मां तुम थोड़ा आराम कर लो, तो मैं अपने कमरे में चली गई. आज शिखा से मिल कर मन बहुत खुश हुआ. कितना पुराना रिश्ता था. मेरी शादी में सब से आगे थी वह और जब सूरज के पापा मुझे छोड़ कर गए तो भी मेरे आंसू पोंछने में वह सब से आगे थी. पर फिर एक दिन नौकरी के लिए लखनऊ चली गई और मैं अपनी ससुराल में उलझ कर रह गई. अचानक मन बहुत सालों पीछे चला गया. सूरज सिर्फ 5 साल का था जब सूरज के पापा मुझे छोड़ कर इस दुनिया से चले गए थे. सूरज के दादादादी ने उपकार किया, जो अपने घर में जगह दी. पिताजी ने मुझे अपनी बेटी माना पर माताजी ने हमेशा मुझे पराई ही समझा. हर पल एहसास दिलाया कि मुझे उस घर में सिर्फ सूरज के कारण रहने दिया जा रहा है. बातबात पर माताजी, ‘यह मेरा घर है मेरे हिसाब से चल’ जैसे वाक्यों का प्रयोग कर के मेरे आत्मविश्वास को हिलाती आई थीं. सूरज भी उन की परवरिश में पलाबढ़ा. उस ने भी कभी किसी चीज में मेरी राय तो दूर उसे मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा. सासससुर मरने से पहले अपना सब कुछ सूरज के नाम कर गए. उस के बाद तो सूरज की जो मरजी हुई वह उस ने किया. जब उस ने रीता से शादी का फैसला किया तब भी मेरी नाराजगी को नजरअंदाज किया. पर रीता ने पहले दिन से मुझे सम्मान दिया. घर की छोटीछोटी बातों में मेरी राय ली और सूरज को भी मेरे करीब लाई. पहली बार मैं मौल भी तो उसी के साथ ही गई थी. फिल्म देखने का मुझे बहुत शौक था. जब उसे इस बात का पता चला तो महीने में 2-3 फिल्में दिखाने ले जाती. रीता एक तरह से मेरी बेटी जैसी बन गई. इतने सालों से सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था पर अचानक कल सत्संग में नीरजा और शीला की बातों से मैं क्याक्या सोचने लगी. कैसी पागल हूं मैं… मेरी नजरों के सामने शिखा के साथ आए वे लोग घूमने लगे जिन के बच्चों ने उन्हें आश्रम में रहने के लिए मजबूर किया था. मेरा मन कांप गया कि मैं मूर्ख बन कर रिश्तों की डोर को किसी की बातों में आ कर खींच रही थी. अच्छा हुआ कि समय रहते अक्ल आ गई.

मैं झट से उठी और रसोई में जा कर रीता से बोली, ‘‘रीता, अब मेरी तबीयत ठीक है. तू ने छुट्टी ली है तो चल शाम को बाजार से गोवा जाने के लिए थोड़ी खरीदारी ही कर आते हैं.’’ मेरी बात सुन कर रीता ने छोटे बच्चे की तरह मुझे गले लगा लिया.

पप्पू गोल्ड✍

समाधान📝

एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ।

एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है।  बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।

बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।

फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।

एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?

पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।

पप्पू गोल्ड✍

काबुलीवाला📝

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।” मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। “देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?” और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!”

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, “बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?”

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और  बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, “इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।” फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?”

रहमत हँसता हुआ कहता, “हाथी।” फिर वह मिनी से कहता, “तुम ससुराल कब जाओगी?”

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, “तुम ससुराल कब जाओगे?”

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।” इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में “काबुलीवाले, काबुलीवाले”, कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?” रहमत ने हँसकर कहा, “हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।”

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, “ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, “क्यों रहमत कब आए?”

“कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ,” उसने बताया।

मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।” 

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, “ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?”

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले” चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, “आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।”

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ।  इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “’यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, ‘आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।’  फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले  ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी  मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न  करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने?  वह उसकी याद में खो गया। 


मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“


पप्पू गोल्ड✍

बेटी परायी सी लगती है ………..

बेटी जब शादी के मंडप से…

ससुराल जाती है तब …..

पराई नहीं लगती.
मगर ……
जब वह मायके आकर हाथ मुंह धोने के बाद सामने टंगे टाविल के बजाय अपने बैग से छोटे से रुमाल से मुंह पौंछती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह रसोई के दरवाजे पर अपरिचित सी खड़ी हो जाती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह पानी के गिलास के लिए इधर उधर आँखें घुमाती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह पूछती है वाशिंग मशीन चलाऊँ क्या तब वह पराई लगती है. 
जब टेबल पर खाना लगने के बाद भी बर्तन खोल कर नहीं देखती तब वह पराई लगती है.
जब पैसे गिनते समय अपनी नजरें चुराती है तब वह पराई लगती है.
जब बात बात पर अनावश्यक ठहाके लगाकर खुश होने का नाटक करती है तब वह पराई लगती है….. 
और लौटते समय ‘अब कब आएगी’ के जवाब में ‘देखो कब आना होता है’ यह जवाब देती है, तब हमेशा के लिए पराई हो गई ऐसे लगती है.
लेकिन गाड़ी में बैठने के बाद 

जब वह चुपके से 

अपनी आखें छुपा के सुखाने की कोशिश करती । तो वह परायापन एक झटके में बह जाता तब वो पराई सी लगती।


 Dedicate to all Girls..
नहीं चाहिए हिस्सा भइया

मेरा मायका सजाए रखना
कुछ ना देना मुझको 

बस प्यार बनाए रखना

पापा के इस घर में 

मेरी याद बसाए रखना
बच्चों के मन में मेरा

मान बनाए रखना

बेटी हूँ सदा इस घर की

ये सम्मान सजाये रखना।
Dedicated to all married girls …..

बेटी से माँ का सफ़र  

(बहुत खूबसूरत पंक्तिया , सभी महिलाओ को समर्पित)
बेटी से माँ का सफ़र 

बेफिक्री से फिकर का सफ़र

रोने से चुप कराने का सफ़र

उत्सुकत्ता से संयम का सफ़र
पहले जो आँचल में छुप जाया करती थी  ।

आज किसी को आँचल में छुपा लेती हैं ।
पहले जो ऊँगली पे गरम लगने से घर को सर पे उठाया करती थी ।

आज हाथ जल जाने पर भी खाना बनाया करती हैं ।

 

पहले जो छोटी छोटी बातों पे रो जाया करती थी

आज बो बड़ी बड़ी बातों को मन में  छुपाया करती हैं ।
पहले भाई,,दोस्तों से लड़ लिया करती थी ।

आज उनसे बात करने को भी तरस जाती हैं ।
माँ,माँ  कह कर पूरे घर में उछला करती थी ।

आज माँ सुन के धीरे से मुस्कुराया करती हैं ।
10 बजे उठने पर भी जल्दी उठ जाना होता था ।

आज 7 बजे उठने पर भी 

लेट हो जाया करती हैं ।
खुद के शौक पूरे करते करते ही साल गुजर जाता था ।

आज खुद के लिए एक कपडा लेने को तरस जाया करती है ।
पूरे दिन फ्री होके भी बिजी बताया करती थी ।

अब पूरे दिन काम करके भी काम चोर

कहलाया करती हैं ।
 एक एग्जाम के लिए पूरे साल पढ़ा करती थी।

अब हर दिन बिना तैयारी के एग्जाम दिया करती हैं ।
ना जाने कब किसी की बेटी 

किसी की माँ बन गई ।

कब बेटी से माँ के सफ़र में तब्दील हो गई …..।
पपप गोल्ड

कमालपुर✍

मैं औरत हुँ…….

सुनो…

फिकरे कसते हो औरत की देह की बनावट पे

तो आग सी लग जाती हैँ

विद्रोह जग जाता है जब तुमको घूरते देखती हूँ

सुनो…

जिन स्तनो पर तुम फब्तिया कसते हो

उन्ही मेँ दुध भर के नवजात की भुख मिटाती हूँ…

यदा कदा तुम्हारी भी

सुनो…

मैँने नहीँ माँगा था ये शरीर,प्रकृति ने मुझको

ताकि गढ सकू मानवता को अपने अंदर…

हर औरत के नितम्बो पे आँखे गङाते हो

सुनो…

उन्ही के बल पे कोख मेँ बच्चे को सह पाती हूँ…

नहीँ चाहिए मर्दो से समानता

नहीँ चाहिए नारी शक्ति 

जीने दो मुझको,मुझमेँ

क्योंकि अब मैँ,खुलकर जीना चाहती हूँ…

सुनो…

मर्द को ढोती हूँ खुद पे

तब कही जा के नया सृजन कर पाती हूँ…

एहसान है मेरा तुझ पे कि मैँ मानवता को रच पाती हूँ…

है अंहकार अपने मर्द होने का तो ले लो हमसे हर अधिकार

सुनो…

देती हूँ सब कुछ जो हमारा है

देती हूँ स्तन,देती हूँ महावारी

देती हूँ बच्चेदानी,देती हूँ योनी

गढ लो अपना संसार…

सुनो…

गढ सको तो.. 

PAPPU gold

Kmalpur✍

छोटी सी खुशी…..

छोटी सी खुशी (कहानी)

 

 

 

देवारी आयें गयी अब घरहुं  कै सफाइया करै का हैं काल से सब सुरु करब बड़बड़ाती हुई कमला बिस्तर पर ढ़ेर हो गयी।….जब  सूर्यदेव निकलने की तैयारी कर रहे थे तभी कमला की नींद भी टूट गयी ।… झाडू उठाकर आँगन बुहारने लगी और मन ही मन सोच रही थी कि अबकी सफईया मा कउनो कसर न छोड़ब तब तौ लक्ष्मी मैय्या दया करिहैं ।… अबकी कौउनो मेर बिटिवा का फराक लेइदी और लरिकवा का बुशर्ट।… हे लक्ष्मी मैय्या अबकी दया किहो । झाडू कोने में पटक वह जल्दी जल्दी बच्चों के लिए रोटी बनाने में जुट गयी।जैसे तैसे घर के काम निपटा वह मालकिन के घर काम पर पहुंच गई।

 

घन्टी की आवाज सुन, मालकिन ने दरवाजा खोलते ही कमला को काम समझा दिया… सुन कमला आज से घर की सफाई शुरु कर दे।और हां अच्छे से करना कोई कोना छूटना नहीं चाहिये। कमला की आँखें चमक उठी मानों लक्ष्मी मैय्या ने उसकी सुन ली । आज जौउन कुछ पुरान होई सब मालकिन निकार दे है। जय हो लक्ष्मी मैय्या।

 

बड़ी तल्लीनता से कमला सफाई कर रही थी मानों उसका लक्ष्य नजदीक ही है। घड़ी को देखा- दो बज गया ?

 

अब जौउन बच गा है मालकिन कल करब घरहुँ काम परा है । — कमला बोल पडी

 

मालकिन – ठीक है जा पर कल सब खत्म कर देना।

हाँ – हाँ मलकिन कल सब निपटाये देब।
रुक ये समान लेती जा तेरे बच्चों के काम आ जायेगा। और दो बड़े पैकेट मालकिन ने कमला को थमा दिये।

 

पैकटो के देखते ही कमला की आँखों की ज्योति बढ गयी और झट से पकड़, ना जाने कितने सपने सजाये घर के लिये निकलने को तैयार हो गयी। 
तभी मालकिन ने दरवाजा बन्द करने से पहले उसे सचेत कर दिया — कमला देख तुझे कितना समान फ्री का दे दिया है कबाड़ वाले को देती तो कुछ रुपये ही हाथ लगते पर चल तू तो अपनी हैं अब काम में मोटाई मत करना।

 

इतना बड़ा उपकार करके मालकिन के दिल को बहुत – बडी खुशी हाथ लग गई थी आज तो उन्होंने कमला को अपने दान के नीचे दबा लिया।

 

दूसरी तरफ कमला जल्दी – जल्दी पैर बढा रही थी कि कब घर पहुंचे और पैकेट खोले।पर मालकिन के शब्द उसके अनपढ़ दिमाग में गूँज रहे थे। 
वह बडबडा रही थी कितनौ करि देव पर मालकिन कबहुँ खुस नाय होती ।

 

 

घर के भीतर पहुंचते ही उसके बच्चों ने घेर लिया। ……का लाई हो अम्मा .?.. बच्चों के चेहरों की चमक देख कमला का सारा गुबार गायब हो गया। वह पैकेट खोलने लगी। जिसमें में मालकिन के बच्चों के पुराने कपड़े और कुछ टुटे- फूटे खिलौने थे बच्चों के आँखों की चमक दुगनी हो गई दोनों बच्चे अपना अपना खिलौना और कपड़ा छाँटने की होड़ लगा बैठे।  …इका हम लेब,…इका हम लेब; की आवाज़ पूरे घर में गूँज उठी यह देख कमला सब दुःख दर्द भूल गयी। अपने बच्चों की हँसी में उसे जीवन की सबसे बड़ी खुशी मिल रही थी। झूठ – मूठ का गुस्सा करते हुए वह बच्चों से बोली- अरे आरम सै खेलौ कहुँ भागा नाहि जात है।

 

आज पूरे घर को रंग पोत कर एक -एक कोना साफ कर शाम को तुलसी मैय्या और चौखटा पर दिया रखते हुये कमला लक्ष्मी मैय्या से अरदास करने लगी कि अबकी हमरौ ऊपर दया किहो मैय्या।

 

 

दूसरे दिन सुबह उठते ही कमला के पैरों में जैसे चक्कर घिन्नी बंध गयी हो। जल्दी घर का काम निपटा मालकिन के घर पहुँच गयी। और घर के कामों को तेजी से निपटाने लगी। कमला के मन में एक विचार तेजी से घूम रहा था जब मालकिन के घर मेज पर रंग बिरंगे छोटे बड़े डिब्बों के ढेर देखे। ….का हो लक्ष्मी मैय्या हम तो अपनो घरा साफ किहेन अउर  मालकिनों का  भी !पर तू सुनयो खाली बड़  मनइन कै। बड़ी आस रही कि यह बार अपनी बिटिवा का नवा फ्राक खरीद  देब पर जस तोहार मर्जी।

 

काल देवारी हैं और अभही कछु खरीदा  नाहि है चलो साझवा के लई लेब परसाद मैय्या कै पूजा ताहि। तभी मालकिन मेंज पर रखे डिब्बों को चेक करने लगी। मिठाई के डब्बो को एक तरफ रख दिया और खोल कर देखने लगी अरे— यह कुछ खराब हो रही है चलो इसे कमला को दे देंगे। और दूसरी तरफ महंगे उपहार अपने सहेलियों मे बाँटने के लिये पैक करने लगी।ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी घनघना उठी और मालकिन फोन पर बतियाने लगी —

हैलो ओ मिस्सेज शर्मा कैसी है आप? 
बढि़या — दूसरी तरफ से आवाज आयी।
अरे आप अपने कितना प्यारा गिफ्ट भेजा है थैंक्यू सो मच।

 

मालकिन गर्व से मुस्कुराती हुई बोली — अरे आप भी क्या लेकर बैठ गयी। हमने अपने सभी खास मित्रो के लिये दिल्ली से मगवाये थे। आप को पसंद आया यही मेरे लिए बहुत। हैं।आज मालकिन को फिर से बहुत बडी दंभ वाली खुशी मिली थी। अब मालकिन को यह विश्वास हो गया था कि अबकी किटी में सब उसकी ही जय बोलेंगे। उसके यह उपहार जो वह अपने सहेलियों को भेज रही है सबकी नजर में वह अपने पैसो के बल पर महान दान दाता बन जायेगी। पर इस खुशी के बीच उसका दिल जोरो से धड़क रहा था। क्यों वह सच्ची वाली खुशी नहीं महसूस कर पा रही हैं। काश.. …… वह समझ पाती कि सिर्फ अपने नाम का जयकारा सुनने की ललक में वह अपने आप को धोखा दे रही हैं।…… मानव मन इसी भ्रम में रहता है कि अपने ऐश्वर्य से सबको प्रभावित कर सकता है और ऐसा व्यक्तिव हमेशा चाटुकारिता वाले लोगों से घिरा रहता है जो उसके सामने उसकी महनता का यशोगान तो करते हैं और पीठ पीछे दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख की उपाधि से नवाज़ कर उसका उपहास उडाते हैं।

 

मालकिन अब घरे जाइत है – कमला धीरे से बोली।

मालकिन– जा पर शाम को चार बजे तक आ जाना,आज तेरे साहब के घर वाले आ रहे हैं खाने की तैयारी अच्छे से करना।

मालकिन के ऊपर आज मानो विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा है क्योंकि मेहमान तो आ ही रहे हैं और कुक भी छुट्टी पर चला गया हैं।

ठीक चार बजे कमला मालकिन के दरवाजे पर हाजिर हो गयी, आज साथ में उसकी बिटिया भी आयी थी।

 

मालकिन – आज तू इसे भी ले आयी।? हाँ मालकिन आज इहके बप्पा अबही घरे नाही पहुंचे तो अकेल बिटिया जात कहाँ छोड देइत ?  कमला ने देखा मालकिन के ससुराल वाले आ गये थे। कमला जल्दी – जल्दी हाथ चलाने लगी। काम खत्म करते उसे साढ़े छः बज गये थे उधर उसकी बिटिया लान में जले पटाको के कूड़े में अपनी छोटी सी खुशी बड़ी तल्लीनता से ढूंढ रही थी जब कोई अधजली छुरछुरिया मिल जाती तो उसे अपने फ्राक में पोंछ कर दूसरे हाथ में पकड़ लेती। वह अपनी ही दुनिया में मस्त थी।

 

आज मालकिन गुलाबी साड़ी में सफेद नग वाले हार को पहनें किसी अफसरा से कम नहीं लग रही थी—- कमला भौचक्की सी एकटक मालकिन को देख रही थी और पर अपने मनोभावों को रोक न पायी और बोल पडी — मालकिन करिया टीका लगाय लेयव कोई कै नजर न लागी जाय। मालकिन खिलखिला कर हँस पड़ी। कमला अब घर जाने को तैयार हो गयी। 
मालकिन — कमला ये लो दिवाली का इनाम। और एक डिब्बा मिठाई और एक साडी कमला को थमा दी।

कमला साडी पाकर बहुत खुश थी पर एक कसक उसके मन में रह गयी थी कि बिटिवा का फराक और लरकना के बुसर्ट कउनो मेर कीन पाइत। पर जस मैय्या की महिमा।

कमला गेट पर पहुँची ही थी कि साहब की गाड़ी आकर रुकी 
कमला – नमस्ते साहेब! 
साहब– नमस्ते -नमस्ते कमला यह तुम्हारी बिटिया हैं ?
कमला – हाँ साहेब, घर मा अकेल रही तौ यही लिहे लै आयेन।

साहब — अच्छा किया।और साहब ने पाँच सौ का नोट कमला के हाथों पर रखते हुए कहा इसका बच्चों को कुछ खरीद देना।

कमला को तो मानो कुबेर का खजाना मिल गया हो। बडी खुशी – खुशी साहब को हाथ जोड़ कुछ कहने की कोशिश की पर बोल न पायी।
दरवाजे पर खडी मालकिन यह देख रही थी और बडबडा उठी – आपने तो काम वालो का दिमाग खराब कर रखा है। क्या जरूरत थी पैसे देने की।
पीछे से साहब के भाईयों ने भी प्रश्नों से भरी असन्तुष्ट निगाह साहब पर फेंक दी। 
साहब को ऐसा लगा मानो बहुत बड़ा पाप कर दिया हो। मेरी ही कमाई और पहरेदार यह सब ? उनका मन बिचलित हो उठा ।

मालकिन — अरे कमला साहब नें तो तेरी दीवाली करा दी अब आकर कम से कम अपने साहेब को खाना खिला कर तो जा।

कमला खुशी – खुशी लौट पडी लक्ष्मी मैय्या नें उसकी सुन जो ली थी।

साहब कमरे से फ्रेस होकर निकलते हैं डायनिंग टेबल पर बैठ जाते हैं जहाँ मालकिन ने इम्पोर्टेड बर्तनों में एक से बढ़कर एक नाश्ते सजा रखे थे।ऐसा लग रहा था मानो सारे व्यंजन एक दूसरे से अपने सुपर होने की होड़ लगा रहे हों।

कमला थाली में बाजरे की रोटी, करेले की सब्जी, उबली लौकी,सलाद की प्लेट लाकर साहब के सामने रख दी।आज साहब का खीर खाने का बड़ा मन था पर क्या करें शुगर और बी पी दोनों ही बड़ गया था। बडी मायूसी से भोजन करने लगे। उनके ह्रदय में यह द्वन्द्व बार- बार उठ रहा था कि शायद यही उनकी करनी का फल है जिस पैसे को प्राप्त करने के लिये गलत तरीके को चुना वही आज आ तो अथाह मात्रा में गया पर उनके हिस्से बस यही बाजरे की रोटी ही आयी।

तभी मालकिन की आवाज आयी– सुनते हैं जी भोजन के बाद बड़े साहब के घर चलेंगे आखिर दीवाली विश करनी है… मैं तो तैयार हूँ।
कमला दूसरी रोटी लेकर आ गयी।
साहब — अब बस करो, भूख नहीं है।
कमला — जी, चाय लाइत है साहेब।
– साहब — ठीक है ले आओ।
इतने में घर के सभी सदस्य साहब के पास अपनी – अपनी फरमाईशो की लिस्ट लेकर पहुँच गए। बेटी को नया फोन, बेटा को बाईक, परिवार को भी कुछ वजन दार गिफ्ट जो बडा भाई दे।

मालकिन। –अबकी बार तो मुझे प्लेटिनम का डायमंड सेट चाहिए , यही एक पहन- पहन कर बोर हो चुकी हूँ।

कमला चाय रखते हुए साहब से बोली— साहब अब जाइत हन। भगवान आपकै लम्बी जिन्दगी दै।लक्ष्मी मैय्या खूब बरकत करें। आप दिन दुना रात चौगुना बाडै।

कमला और साहब दोनों के ह्रदय में एक दूसरे के प्रति कृतज्ञता के भाव थे।दोनों ही एक दूसरे से बहुत कुछ कहना चाह रहे थे पर शब्द नहीं मिल पा रहें थे। कमला की बात सुनकर साहब असमंजस में  पड़ गये कि कमला के शब्दों को वह अपने जीवन की शुभकामना समझे या ….श्राप??
 

चाय की सिप लेते – लेते साहब को अंगुलीमार डाकू की कहानी याद आ गई। जब उसने अपने परिवार से पूछा था कि क्या कोई उसके उस पाप का भागी बनेगा?????? सब नें मना कर दिया था।

चाय पीते – पीते उन्होंने अपनी पत्नी ( मालकिन) पर नजर डाली,…….. यह क्या साथ देगी जो मुझे एक कप चाय भी बना कर नहीं दे पाती।……बच्चे जब तक बाप की कमाई है। मौज करेगे…. नहीं तो किसी वृद्धाश्रम में धकेल आयेगें।…. परिवार….. साहब उगते सूरज को ही सब सलाम करते हैं।…. उसके बाद हम पहचानते नहीं।

चाय का आखिरी सिप लेते ही साहब बोल पड़े कहो चाहे जो कमला बिना चीनी की ही चाय में इतनी मिठास घोल देती है कि जिन्दगी की सारी कड़वाहट निकल जाती हैं।

लक्ष्मी मैय्या ने कमला की अरदास सुन ली थी बिटिया की फ्राक और लड़के का शर्ट दोनों ही आ गया था और जो रूपया बचा उसका तेल खरीद लायी कि आज लरिकै तौहरवा का पूरी खहिये।

आज साहब और कमला दोनों ने ही एक दूसरे को अपनेपन की वह छोटी – सी खुशी दे दी थी जिसका कोई धनवान  कभी अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकता।

नम्मो की शादी…….

जब भी मैं नम्रता की कहानी सुनाना चाहता हूं, कलेजा मुंह को आ जाता है यह भी समझ नहीं आता कि कहां से शुरू करूं पता नहीं वह ऊपर वाला ऐसी निष्ठुर कहानियां रचता कैसे है। क्या पत्थर का दिल है उसका ! आज मैंने मन कड़ा करके यह निश्चय कर लिया है कि आपको नम्मो की कथा सुनाकर ही रहूंगा।

नम्मो यानी मंझली दीदी की बिटिया यानी मेरी चौथे नम्बर की भांजी। एक बेटे की चाह में लगातार चार बेटियों की मां बन गई थी दीदी अब उन्हें और जीजा जी को कौन समझाता कि उस मायावी नटवर नागर के आगे किसी की चाह कभी पूरी हुई है क्या। जीजा जी तहसील कोर्ट में नाजिर की नौकरी में खट रहे थे सीधेसादे सज्जन की उपाधि देने योग्य व्यक्तित्व था उनका। कोर्ट में वकीलों से प्यार मोहब्बत का सम्बन्ध था। सुनवाई की तारीख इधर उधर करके रोज पच्चीस -पचास की ऊपरी कमाई फटकार कर खुश रहते थे। बड़ी तीनों लड़कियों के विवाह सम्पन्न कराने के रास्ते में उन्हें कोई ज्यादा कठिनाई नहीं हुई थी। लड़कियां सभी रूपवती और गौरांग थीं। हालांकि जीजा जी सांवले थे परन्तु लड़कियां मेरी सुन्दरी दीदी पर गई थीं। ऊपर से सब ग्रेजुयेट। सोने पर सुहागा यह कि सब नौकरीपेशा। तीनों पुत्रियों की शादियां कैसे बिना दहेज़ के हो गईं, न दीदी को पता चला न जीजा जी को।

दीदी और जीजा जी इधर चिंतित चल रहे थे। बुढ़ापा शरीर को छोड़ने लगा था। नम्रता का विवाह उनके लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी। तीन लड़कियों के विवाह में प्रोवीडेंट फंड का रूपया थोड़ा-थोड़ा करके खुले पिंजरे की मैना की तरह फुर्र हो चुका था। इस कनिष्ठा को देने के लिए अब कोष में कुछ बचा ही नहीं था। यह तो अच्छा हुआ कि जीजा जी के रिटायरमेंट के कुछ महीने बाद ही उनकी जगह पर जज साहब ने नम्मो की नौकरी लगवा दी। तब तक चौबीस-पच्चीस की हो चुकी थी नम्रता। जात कमल सा गुलाबी खिला-खिला रूप, नपातुला नाक-नक्श। कोई देखे तो विवाह के लिए न नहीं कह सके परन्तु उस विधना का क्या जो दुनिया के रंगमंच पर नये-नये ऊटपटांग खेल रचाता है। रूप दिया, गुण दिया परन्तु विवाह के लेख में विलम्बित शब्द जोड़ दिया। वर पक्ष को वधु पसंद आती लेकिन बात लेनदेन पर अटक जाती। इस बिकाऊ जमाने में जीजा जी अपनी हैसियत से डाक्टर, इंजीनियर तो खरीद नहीं सकते थे सो शिक्षक बाबू जैसों से संतोष के मूड में थे।

विवाह के इस खेल में, हिंदुस्तानी समाज में लड़की की उम्र बढ़ने के साथ एक ऐसी स्थिति आती है कि कन्या और कन्या के मां-बाप दोनों ऊब के शिकार हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि कैसे भी करके यह विवाह नामी रस्म पूरा तो हो, बला तो टले। आड़ा- टेढ़ा दूल्हा कैसा भी हो, चलेगा। वैसे भी अधिकतर लड़कियाँ समझौतावादी होती हैं। होते-होते भिलाई के एक रिटायर्ड डाक्टर के लड़के के साथ नम्मो की शादी लग ही गई। लड़का कुछ करता नहीं था। बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। बाप के पास डाक्टरी के धंधे में कमाया अच्छा-खासा कोष था। पुश्तैनी जमीन-जायदाद ,खेत-खलिहान भी थे। यानी कि खुद चंचला लक्ष्मी उनके घर में स्थायी रूप से आसन जमा झंडा-पताका गाड़कर विराजमान थीं। जीजा-दीदी, तीनों  बहनों, दामादों और रिश्तेदारों ने इसे नम्मो पर ऊपरवाले का ख़ास करम समझा, बैंड बाजे बजे, बारात आई, सात फेरे हुए और बन गई नम्मो दुल्हनिया। बिदाई हुई तो अपने अम्मा, बाबूजी से लिपटकर खूब रोई। बहनों के काँधे भी भिंगोये। दूल्हा राजा जैसा था, वैसा था। किसी ने ज्यादा मीनमेख नहीं निकाले। मीनमेख और इन्कार-अस्वीकार का मौका ही नहीं था कन्या पक्ष के हाथ ! हां, इतना जरूर था कि नम्मो के संग दूल्हे को जब लोगों ने देखा तो दबी जुबान यह तंज कसना न भूले “ब्यटी एंड द बीस्ट !”

कहां नए लड़कियों का यह ख़ास गुण है कि वे खराब से खराब परिस्थितियों में भी सामंजस्य बैठा लेती हैं। नम्मो ने भी दुल्हन बनकर बैठाया। अपने अरमानों की महमहाती मोंगरे-रातरानी की पोटली लिए वह पी घर पहुंची। ससुराल में दो दिन खूब नेग-दस्तूर हुए। रिश्तेदार जुड़े, नाच-गाना हुआ, हंसी-ठिठोली चली फिर आई सुहाग की रात। परले सिरे के एकांत बड़े कमरे में नया डबल बेड डाला गया। फोम के गद्दे और दूधिया सफेद चादर बिछे। ननद, देवरानियों और जेठानियों ने पूरे कमरे को रंग-बिरंगे महमहाते फूलों से ऐसा सजाया कि लगा कमरे में वसंत उतर आया हो।

रात हुई, नम्मो को ले जाकर ननद-देवरानियों ने कमरे के अंदर गमगमाते पलंग पर बैठा दिया। बाजू में छोटे मेज पर दूध, बादाम, केसर का दो गिलास रखा हुआ था। वह धड़कते हृदय से नैनों में अरमानो का काजल आंजे दूल्हे का रास्ता देखती रही। मुम्बईया फिल्मों के दृश्य की तरह, दस बजा, ग्यारह बजा, बारह बजे। उसकी आंखें नीद में बोझिल हुई जा रही थीं। चाहत के काजल कुछ कडुआने लगे थे कि तभी जोर की आवाज के साथ दरवाजा खुला और उसके साथ ही कमरे के मद्धिम प्रकाश में दिखा एक लड़खड़ाते पुरूष का शरीर। वह सम्हलने के लिए कुर्सी-टेबल का सहारा मांग रहा था । नम्मो स्तब्ध ! न पलंग से उठ सके न बोल सके। कमरा अंग्रेजी शराब की गंध से खदबदा गया। लड़खड़ाती आकृति पास आई और एक दुष्ट-निर्मम आवाज गूंजी “देख, मैं मानता हूं कि तू…… बहुत खूबसूरत है । पर…… मैं तेरे……किसी काम का नहीं । सच बता रहा हूं ……ऊपर से……. मैं मर्द दिखता तो हूँ पर…… हूं नहीं ….. तुझे, मेरे छोड़…… हर सुख मिलेगा समझी ………मेरे दोस्त साले…….मुझे चिढ़ाकर कहते थे न…..कि छक्के को कौन लड़की देगा? कौन करेगी शादी….. मुझसे कल बताऊंगा सालों को……. कि देखो हरामियों,……मेरी भी हो गई शादी, और ये रही मेरी…..खूबसूरत दुल्हन…….. तुम…… हरामजादों को मेरा….. जवाब हो…….तुझे…पता नहीं…. उन बदकारों ने…..मेरे स्वाभिमान….. और आत्मा के…. शरीर में…… ईसा की तरह….कितनी कील ठोकी…..क्रूस…… पर चढ़ाया। …..कल दूंगा जवाब सालों को……… हां, तूने इस राज को खोला……..और मुझे छोड़कर गई तो देख……मेरे हाथों में ये छूरा……। नर्म, मुलायम फूलों जैसे जिस्म को गोद-गोदकर……टुकड़े.टुकड़े कर दूंगा हरामजादी….अब मेरी है तो…..मेरी ही होकर…..रहना पड़ेगा…….। चल उधर हट…….और अब सोजा……। वह नम्मो को बिस्तर में जोर से परे ढकेलते चेताया । 

उसकी भेड़िये सी जलती-घूरती आंखों से नजर मिलते ही नम्मो का शरीर डर से कंपकपा उठा। उसके मुंह से निकली शराब के भभके ने अंदर ही अंदर नम्मो के जिस्म में घृणा का सैलाब पैदा कर दिया। वह पलंग के दूसरे सिरे पर सरककर सन्न हुई बैठ गई। काफी देर तक उसे कुछ सूझा ही नहीं। कमरे में एक भयानक सन्नाटा तारी था। शरीर सुन्न पड़ गया था। लगा, खोपड़ी में अचानक कोई घन चला रहा हो। बाहर बगीचे से झींगुरों के बोलने की आवाज के साथ अचानक चमगादढ़ की चीख गूंजी। कमरे के साथ नम्मो का हृदय भी एक अजाने भुतहा डर से भर गया। लगा जैसे कोई काली-कलूटी घनीभूत आकृति ठठाकर हंसते हुए पूछ रही हो “मजा आ रहा है सुहागरात में दुल्हनिया?” एकाएक वह आकृति झपटी और उसके अरमानों की पोटली के रंग-बिरंगे फूल, छीनती-बिखेरती गायब हो गई। उसके हाथ गीले गालों पर फिरे, अंगुलियाँ आँखों तक पहुँचीं। कजरा धुल गया था। कनखियों से देखा तो उसके सपनों के राजकुमार, सात जन्मों के हमसफर की घोड़े की तरह नाक बज रही थी। वह स्तब्ध बैठी रही। नीद तो भाग ही चुकी थी ।  दूसरे दिन सुबह नहाने-धोने, खाने-पीने के बाद देवर-देवरानियों, ननदों की हंसी -ठिठोली का दौर चला। सब मजाक करके खिलखिलाते रहे। नम्मो का चित्त कहीं और था। वह बनावटी हंसी भी हंस नहीं पा रही थी। क्या करे, क्या कदम उठाये ? उसकी समझ के बाहर हो चुका था। तभी ड्राईंगरूम में दूल्हे राजा का प्रवेश हुआ। शराब की खुमारी शायद पूरी तरह उतरी नहीं थी। लाल-लाल आंखें, रूखा-रूखा खलनायकों सा चेहरा। आते ही अड़ियल दुष्ट आवाज में बोला- “माम, मैं आपकी बहू को जरा अपने दोस्त शरद के यहां से घुमा लाऊं……? माम  मुस्कुराती बोली- जा रहा है तो अपने मामा का घर भी दिखाते लाना। जा बहू। “नम्मो निषेध में कुछ बोलना चाहती थी परन्तु एक अनागत भय ने जैसे उसका मुंह जबरदस्ती बंद कर दिया। दरवाजे के पास से खलनायकी आवाज गूंजी ” चलो……जेठानी हंसती हुई बोली” -ऐसे ही ले जाएगा क्या ? उसे तैयार तो हो लेने दे, नम्मो खड़ी होती हुई पल भर ठिठकी। उधर से दूल्हे राजा की रूखी आवाज आई” अरे ठीक तो है  क्या सजेगी।” वह कमरे से बाहर निकला। पीछे-पीछे बलि के बकरे की तरह नम्मो निकली। उसने स्कूटर स्टार्ट किया और आदेश दिया “बैठो……….”वह चुपचाप पीछे बैठ गई। उसके अवचेतन में कहीं रात की धमकी गूंज रही थी “तेरे मुलायम, फूल जैसे जिस्म को गोद. गोदकर,टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा…….।” और चमक रहा था धारदार नुकीला छूरा !  गाड़ी झटके के साथ आगे बढ़ी। नम्मो उस पति नामी दुष्ट के बदन को छूना नहीं चाहती थी परन्तु गाड़ी के झटके से खुद को गिरने से बचाने के लिए उसने, उसका कन्धा जोर से पकड़ा। वह गरजा” ठीक से बैठ साली, बैठना भी नहीं आता तुझे…….उसका मन हुआ कि चलते स्कूटर से कूद जाए, लेकिन यह संभव नहीं था। जैसे ही स्कूटर चौराहे पर पहुंचा, वहां पीपल पेड़ के नीचे बने मंच पर दस -बारह आवारा किस्म के युवा प्रौढ़ बावन परियों में रमे, ठहाका लगाते दिखे। दूल्हे ने पहले गाड़ी की गति कम की फिर स्कूटर को उनके एकदम पास ले जाकर चीखा “देखो सालों, तुम लोग कहते थे न कौन देगा तुझे लड़की …..मुझे शिखंडी कहते थे हरामियों……देख लो ये रही मेरी बीवी…….एकाएक उसने गाड़ी की स्पीड बढ़ाई और चिल्लाया “देखो हरामजादों, देखो इस शिखंडी का कमाल……! है ऐसी खूबसूरत बीवी तुम्हारी। ”  नम्मो को कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक उसने साड़ी का पल्लू खींचा और चेहरे को घूंघट के आवरण में ढाप लिया। वह, उसका दूल्हा नामी जीव उसे शहर की गली-कूचों में विद्रूप चेहरे से चीखता घुमाता रहा “देखो सालों, मुझे शिखंडी पुकारते थे न ……..कहते थे, कौन करेगा मुझसे शादी ? देख लो, ये रही मेरी बीवी …….”नम्मो घूंघट के अवगुंठन में भी शर्म से पानी-पानी हो रही थी।  वह क्या करे? उसकी समझ से परे था। करीब पौन घंटे शहर की गली-कूचों और सड़कों में घुमाने के बाद वह पति नामी जीव घर लौटा। गाड़ी से उतरते-उतरते नम्मो की नजर दूल्हे राजा से टकराई। लाल-लाल खूनी आंखें और कसाई चेहरा ! जुगुप्सा से उसने नजरें नीची कीं और चुपचाप अपने कमरे में घुस गई । ससुराल के दो-तीन दिन मानसिक रूप से नर्क की घोर यातनाओं में बीते। अश्लील गालियों और कत्ल की धमकियों से नम्मो का गुलाबी चेहरा और देह शाख से टूटे फूल की तरह मुरझाकर रह गये थे। चौथे दिन उसके पिता उसे बिदा कर ले जाने आये। खलनायक दूल्हा तो भेजने को तैयार ही नहीं होता था। परम्पराओं और रीति-रिवाजों का नाम लेकर ले- दे विदाई हो पाई। जाते-जाते कमरे के अंदर अकेले में धमकी मिली “सात फेरे लिये हैं साली, चुपचाप लौट आना। किसी से मेरा भेद बताया और नहीं लौटी तो वहीं तेरे घर आकर गोली मारूंगा समझी। ऐसा वैसा मत समझना हां………।”  नम्मो, पिता के साथ अपने विवाहित जीवन के अरमानों के बिखरे फूलों वाली चिंदी-चिंदी पोटली लेकर लौट आई । घर पहुंची तो हफ्तों से घनीभूत पीड़ा मां को देखकर ऐसी उमड़ी कि घंटों उसकी छाती से लगकर रोती रही। पिता से साफ़-साफ़ कह दिया कि वह अब कभी ससुराल नहीं लौटेगी। साल भर तलाक का मुकदमा चला। नम्मो को तलाक मिल गया। अरमानों की पूजा वाली फटी थिगड़ेल, चिंदी-चिंदी, सूखे फूलों की पोटली के टुकड़ों को उसने अपने आंसुओं की गंगा-जमुनी नदी में कब विसर्जित किया, उसे खुद ही पता न चला। – 


पप्पू गोल्ड

कमालपुर✍