बेटी परायी सी लगती है ………..

बेटी जब शादी के मंडप से…

ससुराल जाती है तब …..

पराई नहीं लगती.
मगर ……
जब वह मायके आकर हाथ मुंह धोने के बाद सामने टंगे टाविल के बजाय अपने बैग से छोटे से रुमाल से मुंह पौंछती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह रसोई के दरवाजे पर अपरिचित सी खड़ी हो जाती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह पानी के गिलास के लिए इधर उधर आँखें घुमाती है , तब वह पराई लगती है. 
जब वह पूछती है वाशिंग मशीन चलाऊँ क्या तब वह पराई लगती है. 
जब टेबल पर खाना लगने के बाद भी बर्तन खोल कर नहीं देखती तब वह पराई लगती है.
जब पैसे गिनते समय अपनी नजरें चुराती है तब वह पराई लगती है.
जब बात बात पर अनावश्यक ठहाके लगाकर खुश होने का नाटक करती है तब वह पराई लगती है….. 
और लौटते समय ‘अब कब आएगी’ के जवाब में ‘देखो कब आना होता है’ यह जवाब देती है, तब हमेशा के लिए पराई हो गई ऐसे लगती है.
लेकिन गाड़ी में बैठने के बाद 

जब वह चुपके से 

अपनी आखें छुपा के सुखाने की कोशिश करती । तो वह परायापन एक झटके में बह जाता तब वो पराई सी लगती।


 Dedicate to all Girls..
नहीं चाहिए हिस्सा भइया

मेरा मायका सजाए रखना
कुछ ना देना मुझको 

बस प्यार बनाए रखना

पापा के इस घर में 

मेरी याद बसाए रखना
बच्चों के मन में मेरा

मान बनाए रखना

बेटी हूँ सदा इस घर की

ये सम्मान सजाये रखना।
Dedicated to all married girls …..

बेटी से माँ का सफ़र  

(बहुत खूबसूरत पंक्तिया , सभी महिलाओ को समर्पित)
बेटी से माँ का सफ़र 

बेफिक्री से फिकर का सफ़र

रोने से चुप कराने का सफ़र

उत्सुकत्ता से संयम का सफ़र
पहले जो आँचल में छुप जाया करती थी  ।

आज किसी को आँचल में छुपा लेती हैं ।
पहले जो ऊँगली पे गरम लगने से घर को सर पे उठाया करती थी ।

आज हाथ जल जाने पर भी खाना बनाया करती हैं ।

 

पहले जो छोटी छोटी बातों पे रो जाया करती थी

आज बो बड़ी बड़ी बातों को मन में  छुपाया करती हैं ।
पहले भाई,,दोस्तों से लड़ लिया करती थी ।

आज उनसे बात करने को भी तरस जाती हैं ।
माँ,माँ  कह कर पूरे घर में उछला करती थी ।

आज माँ सुन के धीरे से मुस्कुराया करती हैं ।
10 बजे उठने पर भी जल्दी उठ जाना होता था ।

आज 7 बजे उठने पर भी 

लेट हो जाया करती हैं ।
खुद के शौक पूरे करते करते ही साल गुजर जाता था ।

आज खुद के लिए एक कपडा लेने को तरस जाया करती है ।
पूरे दिन फ्री होके भी बिजी बताया करती थी ।

अब पूरे दिन काम करके भी काम चोर

कहलाया करती हैं ।
 एक एग्जाम के लिए पूरे साल पढ़ा करती थी।

अब हर दिन बिना तैयारी के एग्जाम दिया करती हैं ।
ना जाने कब किसी की बेटी 

किसी की माँ बन गई ।

कब बेटी से माँ के सफ़र में तब्दील हो गई …..।
पपप गोल्ड

कमालपुर✍

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मैं औरत हुँ…….

सुनो…

फिकरे कसते हो औरत की देह की बनावट पे

तो आग सी लग जाती हैँ

विद्रोह जग जाता है जब तुमको घूरते देखती हूँ

सुनो…

जिन स्तनो पर तुम फब्तिया कसते हो

उन्ही मेँ दुध भर के नवजात की भुख मिटाती हूँ…

यदा कदा तुम्हारी भी

सुनो…

मैँने नहीँ माँगा था ये शरीर,प्रकृति ने मुझको

ताकि गढ सकू मानवता को अपने अंदर…

हर औरत के नितम्बो पे आँखे गङाते हो

सुनो…

उन्ही के बल पे कोख मेँ बच्चे को सह पाती हूँ…

नहीँ चाहिए मर्दो से समानता

नहीँ चाहिए नारी शक्ति 

जीने दो मुझको,मुझमेँ

क्योंकि अब मैँ,खुलकर जीना चाहती हूँ…

सुनो…

मर्द को ढोती हूँ खुद पे

तब कही जा के नया सृजन कर पाती हूँ…

एहसान है मेरा तुझ पे कि मैँ मानवता को रच पाती हूँ…

है अंहकार अपने मर्द होने का तो ले लो हमसे हर अधिकार

सुनो…

देती हूँ सब कुछ जो हमारा है

देती हूँ स्तन,देती हूँ महावारी

देती हूँ बच्चेदानी,देती हूँ योनी

गढ लो अपना संसार…

सुनो…

गढ सको तो.. 

PAPPU gold

Kmalpur✍

छोटी सी खुशी…..

छोटी सी खुशी (कहानी)

 

 

 

देवारी आयें गयी अब घरहुं  कै सफाइया करै का हैं काल से सब सुरु करब बड़बड़ाती हुई कमला बिस्तर पर ढ़ेर हो गयी।….जब  सूर्यदेव निकलने की तैयारी कर रहे थे तभी कमला की नींद भी टूट गयी ।… झाडू उठाकर आँगन बुहारने लगी और मन ही मन सोच रही थी कि अबकी सफईया मा कउनो कसर न छोड़ब तब तौ लक्ष्मी मैय्या दया करिहैं ।… अबकी कौउनो मेर बिटिवा का फराक लेइदी और लरिकवा का बुशर्ट।… हे लक्ष्मी मैय्या अबकी दया किहो । झाडू कोने में पटक वह जल्दी जल्दी बच्चों के लिए रोटी बनाने में जुट गयी।जैसे तैसे घर के काम निपटा वह मालकिन के घर काम पर पहुंच गई।

 

घन्टी की आवाज सुन, मालकिन ने दरवाजा खोलते ही कमला को काम समझा दिया… सुन कमला आज से घर की सफाई शुरु कर दे।और हां अच्छे से करना कोई कोना छूटना नहीं चाहिये। कमला की आँखें चमक उठी मानों लक्ष्मी मैय्या ने उसकी सुन ली । आज जौउन कुछ पुरान होई सब मालकिन निकार दे है। जय हो लक्ष्मी मैय्या।

 

बड़ी तल्लीनता से कमला सफाई कर रही थी मानों उसका लक्ष्य नजदीक ही है। घड़ी को देखा- दो बज गया ?

 

अब जौउन बच गा है मालकिन कल करब घरहुँ काम परा है । — कमला बोल पडी

 

मालकिन – ठीक है जा पर कल सब खत्म कर देना।

हाँ – हाँ मलकिन कल सब निपटाये देब।
रुक ये समान लेती जा तेरे बच्चों के काम आ जायेगा। और दो बड़े पैकेट मालकिन ने कमला को थमा दिये।

 

पैकटो के देखते ही कमला की आँखों की ज्योति बढ गयी और झट से पकड़, ना जाने कितने सपने सजाये घर के लिये निकलने को तैयार हो गयी। 
तभी मालकिन ने दरवाजा बन्द करने से पहले उसे सचेत कर दिया — कमला देख तुझे कितना समान फ्री का दे दिया है कबाड़ वाले को देती तो कुछ रुपये ही हाथ लगते पर चल तू तो अपनी हैं अब काम में मोटाई मत करना।

 

इतना बड़ा उपकार करके मालकिन के दिल को बहुत – बडी खुशी हाथ लग गई थी आज तो उन्होंने कमला को अपने दान के नीचे दबा लिया।

 

दूसरी तरफ कमला जल्दी – जल्दी पैर बढा रही थी कि कब घर पहुंचे और पैकेट खोले।पर मालकिन के शब्द उसके अनपढ़ दिमाग में गूँज रहे थे। 
वह बडबडा रही थी कितनौ करि देव पर मालकिन कबहुँ खुस नाय होती ।

 

 

घर के भीतर पहुंचते ही उसके बच्चों ने घेर लिया। ……का लाई हो अम्मा .?.. बच्चों के चेहरों की चमक देख कमला का सारा गुबार गायब हो गया। वह पैकेट खोलने लगी। जिसमें में मालकिन के बच्चों के पुराने कपड़े और कुछ टुटे- फूटे खिलौने थे बच्चों के आँखों की चमक दुगनी हो गई दोनों बच्चे अपना अपना खिलौना और कपड़ा छाँटने की होड़ लगा बैठे।  …इका हम लेब,…इका हम लेब; की आवाज़ पूरे घर में गूँज उठी यह देख कमला सब दुःख दर्द भूल गयी। अपने बच्चों की हँसी में उसे जीवन की सबसे बड़ी खुशी मिल रही थी। झूठ – मूठ का गुस्सा करते हुए वह बच्चों से बोली- अरे आरम सै खेलौ कहुँ भागा नाहि जात है।

 

आज पूरे घर को रंग पोत कर एक -एक कोना साफ कर शाम को तुलसी मैय्या और चौखटा पर दिया रखते हुये कमला लक्ष्मी मैय्या से अरदास करने लगी कि अबकी हमरौ ऊपर दया किहो मैय्या।

 

 

दूसरे दिन सुबह उठते ही कमला के पैरों में जैसे चक्कर घिन्नी बंध गयी हो। जल्दी घर का काम निपटा मालकिन के घर पहुँच गयी। और घर के कामों को तेजी से निपटाने लगी। कमला के मन में एक विचार तेजी से घूम रहा था जब मालकिन के घर मेज पर रंग बिरंगे छोटे बड़े डिब्बों के ढेर देखे। ….का हो लक्ष्मी मैय्या हम तो अपनो घरा साफ किहेन अउर  मालकिनों का  भी !पर तू सुनयो खाली बड़  मनइन कै। बड़ी आस रही कि यह बार अपनी बिटिवा का नवा फ्राक खरीद  देब पर जस तोहार मर्जी।

 

काल देवारी हैं और अभही कछु खरीदा  नाहि है चलो साझवा के लई लेब परसाद मैय्या कै पूजा ताहि। तभी मालकिन मेंज पर रखे डिब्बों को चेक करने लगी। मिठाई के डब्बो को एक तरफ रख दिया और खोल कर देखने लगी अरे— यह कुछ खराब हो रही है चलो इसे कमला को दे देंगे। और दूसरी तरफ महंगे उपहार अपने सहेलियों मे बाँटने के लिये पैक करने लगी।ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी घनघना उठी और मालकिन फोन पर बतियाने लगी —

हैलो ओ मिस्सेज शर्मा कैसी है आप? 
बढि़या — दूसरी तरफ से आवाज आयी।
अरे आप अपने कितना प्यारा गिफ्ट भेजा है थैंक्यू सो मच।

 

मालकिन गर्व से मुस्कुराती हुई बोली — अरे आप भी क्या लेकर बैठ गयी। हमने अपने सभी खास मित्रो के लिये दिल्ली से मगवाये थे। आप को पसंद आया यही मेरे लिए बहुत। हैं।आज मालकिन को फिर से बहुत बडी दंभ वाली खुशी मिली थी। अब मालकिन को यह विश्वास हो गया था कि अबकी किटी में सब उसकी ही जय बोलेंगे। उसके यह उपहार जो वह अपने सहेलियों को भेज रही है सबकी नजर में वह अपने पैसो के बल पर महान दान दाता बन जायेगी। पर इस खुशी के बीच उसका दिल जोरो से धड़क रहा था। क्यों वह सच्ची वाली खुशी नहीं महसूस कर पा रही हैं। काश.. …… वह समझ पाती कि सिर्फ अपने नाम का जयकारा सुनने की ललक में वह अपने आप को धोखा दे रही हैं।…… मानव मन इसी भ्रम में रहता है कि अपने ऐश्वर्य से सबको प्रभावित कर सकता है और ऐसा व्यक्तिव हमेशा चाटुकारिता वाले लोगों से घिरा रहता है जो उसके सामने उसकी महनता का यशोगान तो करते हैं और पीठ पीछे दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख की उपाधि से नवाज़ कर उसका उपहास उडाते हैं।

 

मालकिन अब घरे जाइत है – कमला धीरे से बोली।

मालकिन– जा पर शाम को चार बजे तक आ जाना,आज तेरे साहब के घर वाले आ रहे हैं खाने की तैयारी अच्छे से करना।

मालकिन के ऊपर आज मानो विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा है क्योंकि मेहमान तो आ ही रहे हैं और कुक भी छुट्टी पर चला गया हैं।

ठीक चार बजे कमला मालकिन के दरवाजे पर हाजिर हो गयी, आज साथ में उसकी बिटिया भी आयी थी।

 

मालकिन – आज तू इसे भी ले आयी।? हाँ मालकिन आज इहके बप्पा अबही घरे नाही पहुंचे तो अकेल बिटिया जात कहाँ छोड देइत ?  कमला ने देखा मालकिन के ससुराल वाले आ गये थे। कमला जल्दी – जल्दी हाथ चलाने लगी। काम खत्म करते उसे साढ़े छः बज गये थे उधर उसकी बिटिया लान में जले पटाको के कूड़े में अपनी छोटी सी खुशी बड़ी तल्लीनता से ढूंढ रही थी जब कोई अधजली छुरछुरिया मिल जाती तो उसे अपने फ्राक में पोंछ कर दूसरे हाथ में पकड़ लेती। वह अपनी ही दुनिया में मस्त थी।

 

आज मालकिन गुलाबी साड़ी में सफेद नग वाले हार को पहनें किसी अफसरा से कम नहीं लग रही थी—- कमला भौचक्की सी एकटक मालकिन को देख रही थी और पर अपने मनोभावों को रोक न पायी और बोल पडी — मालकिन करिया टीका लगाय लेयव कोई कै नजर न लागी जाय। मालकिन खिलखिला कर हँस पड़ी। कमला अब घर जाने को तैयार हो गयी। 
मालकिन — कमला ये लो दिवाली का इनाम। और एक डिब्बा मिठाई और एक साडी कमला को थमा दी।

कमला साडी पाकर बहुत खुश थी पर एक कसक उसके मन में रह गयी थी कि बिटिवा का फराक और लरकना के बुसर्ट कउनो मेर कीन पाइत। पर जस मैय्या की महिमा।

कमला गेट पर पहुँची ही थी कि साहब की गाड़ी आकर रुकी 
कमला – नमस्ते साहेब! 
साहब– नमस्ते -नमस्ते कमला यह तुम्हारी बिटिया हैं ?
कमला – हाँ साहेब, घर मा अकेल रही तौ यही लिहे लै आयेन।

साहब — अच्छा किया।और साहब ने पाँच सौ का नोट कमला के हाथों पर रखते हुए कहा इसका बच्चों को कुछ खरीद देना।

कमला को तो मानो कुबेर का खजाना मिल गया हो। बडी खुशी – खुशी साहब को हाथ जोड़ कुछ कहने की कोशिश की पर बोल न पायी।
दरवाजे पर खडी मालकिन यह देख रही थी और बडबडा उठी – आपने तो काम वालो का दिमाग खराब कर रखा है। क्या जरूरत थी पैसे देने की।
पीछे से साहब के भाईयों ने भी प्रश्नों से भरी असन्तुष्ट निगाह साहब पर फेंक दी। 
साहब को ऐसा लगा मानो बहुत बड़ा पाप कर दिया हो। मेरी ही कमाई और पहरेदार यह सब ? उनका मन बिचलित हो उठा ।

मालकिन — अरे कमला साहब नें तो तेरी दीवाली करा दी अब आकर कम से कम अपने साहेब को खाना खिला कर तो जा।

कमला खुशी – खुशी लौट पडी लक्ष्मी मैय्या नें उसकी सुन जो ली थी।

साहब कमरे से फ्रेस होकर निकलते हैं डायनिंग टेबल पर बैठ जाते हैं जहाँ मालकिन ने इम्पोर्टेड बर्तनों में एक से बढ़कर एक नाश्ते सजा रखे थे।ऐसा लग रहा था मानो सारे व्यंजन एक दूसरे से अपने सुपर होने की होड़ लगा रहे हों।

कमला थाली में बाजरे की रोटी, करेले की सब्जी, उबली लौकी,सलाद की प्लेट लाकर साहब के सामने रख दी।आज साहब का खीर खाने का बड़ा मन था पर क्या करें शुगर और बी पी दोनों ही बड़ गया था। बडी मायूसी से भोजन करने लगे। उनके ह्रदय में यह द्वन्द्व बार- बार उठ रहा था कि शायद यही उनकी करनी का फल है जिस पैसे को प्राप्त करने के लिये गलत तरीके को चुना वही आज आ तो अथाह मात्रा में गया पर उनके हिस्से बस यही बाजरे की रोटी ही आयी।

तभी मालकिन की आवाज आयी– सुनते हैं जी भोजन के बाद बड़े साहब के घर चलेंगे आखिर दीवाली विश करनी है… मैं तो तैयार हूँ।
कमला दूसरी रोटी लेकर आ गयी।
साहब — अब बस करो, भूख नहीं है।
कमला — जी, चाय लाइत है साहेब।
– साहब — ठीक है ले आओ।
इतने में घर के सभी सदस्य साहब के पास अपनी – अपनी फरमाईशो की लिस्ट लेकर पहुँच गए। बेटी को नया फोन, बेटा को बाईक, परिवार को भी कुछ वजन दार गिफ्ट जो बडा भाई दे।

मालकिन। –अबकी बार तो मुझे प्लेटिनम का डायमंड सेट चाहिए , यही एक पहन- पहन कर बोर हो चुकी हूँ।

कमला चाय रखते हुए साहब से बोली— साहब अब जाइत हन। भगवान आपकै लम्बी जिन्दगी दै।लक्ष्मी मैय्या खूब बरकत करें। आप दिन दुना रात चौगुना बाडै।

कमला और साहब दोनों के ह्रदय में एक दूसरे के प्रति कृतज्ञता के भाव थे।दोनों ही एक दूसरे से बहुत कुछ कहना चाह रहे थे पर शब्द नहीं मिल पा रहें थे। कमला की बात सुनकर साहब असमंजस में  पड़ गये कि कमला के शब्दों को वह अपने जीवन की शुभकामना समझे या ….श्राप??
 

चाय की सिप लेते – लेते साहब को अंगुलीमार डाकू की कहानी याद आ गई। जब उसने अपने परिवार से पूछा था कि क्या कोई उसके उस पाप का भागी बनेगा?????? सब नें मना कर दिया था।

चाय पीते – पीते उन्होंने अपनी पत्नी ( मालकिन) पर नजर डाली,…….. यह क्या साथ देगी जो मुझे एक कप चाय भी बना कर नहीं दे पाती।……बच्चे जब तक बाप की कमाई है। मौज करेगे…. नहीं तो किसी वृद्धाश्रम में धकेल आयेगें।…. परिवार….. साहब उगते सूरज को ही सब सलाम करते हैं।…. उसके बाद हम पहचानते नहीं।

चाय का आखिरी सिप लेते ही साहब बोल पड़े कहो चाहे जो कमला बिना चीनी की ही चाय में इतनी मिठास घोल देती है कि जिन्दगी की सारी कड़वाहट निकल जाती हैं।

लक्ष्मी मैय्या ने कमला की अरदास सुन ली थी बिटिया की फ्राक और लड़के का शर्ट दोनों ही आ गया था और जो रूपया बचा उसका तेल खरीद लायी कि आज लरिकै तौहरवा का पूरी खहिये।

आज साहब और कमला दोनों ने ही एक दूसरे को अपनेपन की वह छोटी – सी खुशी दे दी थी जिसका कोई धनवान  कभी अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकता।

नम्मो की शादी…….

जब भी मैं नम्रता की कहानी सुनाना चाहता हूं, कलेजा मुंह को आ जाता है यह भी समझ नहीं आता कि कहां से शुरू करूं पता नहीं वह ऊपर वाला ऐसी निष्ठुर कहानियां रचता कैसे है। क्या पत्थर का दिल है उसका ! आज मैंने मन कड़ा करके यह निश्चय कर लिया है कि आपको नम्मो की कथा सुनाकर ही रहूंगा।

नम्मो यानी मंझली दीदी की बिटिया यानी मेरी चौथे नम्बर की भांजी। एक बेटे की चाह में लगातार चार बेटियों की मां बन गई थी दीदी अब उन्हें और जीजा जी को कौन समझाता कि उस मायावी नटवर नागर के आगे किसी की चाह कभी पूरी हुई है क्या। जीजा जी तहसील कोर्ट में नाजिर की नौकरी में खट रहे थे सीधेसादे सज्जन की उपाधि देने योग्य व्यक्तित्व था उनका। कोर्ट में वकीलों से प्यार मोहब्बत का सम्बन्ध था। सुनवाई की तारीख इधर उधर करके रोज पच्चीस -पचास की ऊपरी कमाई फटकार कर खुश रहते थे। बड़ी तीनों लड़कियों के विवाह सम्पन्न कराने के रास्ते में उन्हें कोई ज्यादा कठिनाई नहीं हुई थी। लड़कियां सभी रूपवती और गौरांग थीं। हालांकि जीजा जी सांवले थे परन्तु लड़कियां मेरी सुन्दरी दीदी पर गई थीं। ऊपर से सब ग्रेजुयेट। सोने पर सुहागा यह कि सब नौकरीपेशा। तीनों पुत्रियों की शादियां कैसे बिना दहेज़ के हो गईं, न दीदी को पता चला न जीजा जी को।

दीदी और जीजा जी इधर चिंतित चल रहे थे। बुढ़ापा शरीर को छोड़ने लगा था। नम्रता का विवाह उनके लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी। तीन लड़कियों के विवाह में प्रोवीडेंट फंड का रूपया थोड़ा-थोड़ा करके खुले पिंजरे की मैना की तरह फुर्र हो चुका था। इस कनिष्ठा को देने के लिए अब कोष में कुछ बचा ही नहीं था। यह तो अच्छा हुआ कि जीजा जी के रिटायरमेंट के कुछ महीने बाद ही उनकी जगह पर जज साहब ने नम्मो की नौकरी लगवा दी। तब तक चौबीस-पच्चीस की हो चुकी थी नम्रता। जात कमल सा गुलाबी खिला-खिला रूप, नपातुला नाक-नक्श। कोई देखे तो विवाह के लिए न नहीं कह सके परन्तु उस विधना का क्या जो दुनिया के रंगमंच पर नये-नये ऊटपटांग खेल रचाता है। रूप दिया, गुण दिया परन्तु विवाह के लेख में विलम्बित शब्द जोड़ दिया। वर पक्ष को वधु पसंद आती लेकिन बात लेनदेन पर अटक जाती। इस बिकाऊ जमाने में जीजा जी अपनी हैसियत से डाक्टर, इंजीनियर तो खरीद नहीं सकते थे सो शिक्षक बाबू जैसों से संतोष के मूड में थे।

विवाह के इस खेल में, हिंदुस्तानी समाज में लड़की की उम्र बढ़ने के साथ एक ऐसी स्थिति आती है कि कन्या और कन्या के मां-बाप दोनों ऊब के शिकार हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि कैसे भी करके यह विवाह नामी रस्म पूरा तो हो, बला तो टले। आड़ा- टेढ़ा दूल्हा कैसा भी हो, चलेगा। वैसे भी अधिकतर लड़कियाँ समझौतावादी होती हैं। होते-होते भिलाई के एक रिटायर्ड डाक्टर के लड़के के साथ नम्मो की शादी लग ही गई। लड़का कुछ करता नहीं था। बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। बाप के पास डाक्टरी के धंधे में कमाया अच्छा-खासा कोष था। पुश्तैनी जमीन-जायदाद ,खेत-खलिहान भी थे। यानी कि खुद चंचला लक्ष्मी उनके घर में स्थायी रूप से आसन जमा झंडा-पताका गाड़कर विराजमान थीं। जीजा-दीदी, तीनों  बहनों, दामादों और रिश्तेदारों ने इसे नम्मो पर ऊपरवाले का ख़ास करम समझा, बैंड बाजे बजे, बारात आई, सात फेरे हुए और बन गई नम्मो दुल्हनिया। बिदाई हुई तो अपने अम्मा, बाबूजी से लिपटकर खूब रोई। बहनों के काँधे भी भिंगोये। दूल्हा राजा जैसा था, वैसा था। किसी ने ज्यादा मीनमेख नहीं निकाले। मीनमेख और इन्कार-अस्वीकार का मौका ही नहीं था कन्या पक्ष के हाथ ! हां, इतना जरूर था कि नम्मो के संग दूल्हे को जब लोगों ने देखा तो दबी जुबान यह तंज कसना न भूले “ब्यटी एंड द बीस्ट !”

कहां नए लड़कियों का यह ख़ास गुण है कि वे खराब से खराब परिस्थितियों में भी सामंजस्य बैठा लेती हैं। नम्मो ने भी दुल्हन बनकर बैठाया। अपने अरमानों की महमहाती मोंगरे-रातरानी की पोटली लिए वह पी घर पहुंची। ससुराल में दो दिन खूब नेग-दस्तूर हुए। रिश्तेदार जुड़े, नाच-गाना हुआ, हंसी-ठिठोली चली फिर आई सुहाग की रात। परले सिरे के एकांत बड़े कमरे में नया डबल बेड डाला गया। फोम के गद्दे और दूधिया सफेद चादर बिछे। ननद, देवरानियों और जेठानियों ने पूरे कमरे को रंग-बिरंगे महमहाते फूलों से ऐसा सजाया कि लगा कमरे में वसंत उतर आया हो।

रात हुई, नम्मो को ले जाकर ननद-देवरानियों ने कमरे के अंदर गमगमाते पलंग पर बैठा दिया। बाजू में छोटे मेज पर दूध, बादाम, केसर का दो गिलास रखा हुआ था। वह धड़कते हृदय से नैनों में अरमानो का काजल आंजे दूल्हे का रास्ता देखती रही। मुम्बईया फिल्मों के दृश्य की तरह, दस बजा, ग्यारह बजा, बारह बजे। उसकी आंखें नीद में बोझिल हुई जा रही थीं। चाहत के काजल कुछ कडुआने लगे थे कि तभी जोर की आवाज के साथ दरवाजा खुला और उसके साथ ही कमरे के मद्धिम प्रकाश में दिखा एक लड़खड़ाते पुरूष का शरीर। वह सम्हलने के लिए कुर्सी-टेबल का सहारा मांग रहा था । नम्मो स्तब्ध ! न पलंग से उठ सके न बोल सके। कमरा अंग्रेजी शराब की गंध से खदबदा गया। लड़खड़ाती आकृति पास आई और एक दुष्ट-निर्मम आवाज गूंजी “देख, मैं मानता हूं कि तू…… बहुत खूबसूरत है । पर…… मैं तेरे……किसी काम का नहीं । सच बता रहा हूं ……ऊपर से……. मैं मर्द दिखता तो हूँ पर…… हूं नहीं ….. तुझे, मेरे छोड़…… हर सुख मिलेगा समझी ………मेरे दोस्त साले…….मुझे चिढ़ाकर कहते थे न…..कि छक्के को कौन लड़की देगा? कौन करेगी शादी….. मुझसे कल बताऊंगा सालों को……. कि देखो हरामियों,……मेरी भी हो गई शादी, और ये रही मेरी…..खूबसूरत दुल्हन…….. तुम…… हरामजादों को मेरा….. जवाब हो…….तुझे…पता नहीं…. उन बदकारों ने…..मेरे स्वाभिमान….. और आत्मा के…. शरीर में…… ईसा की तरह….कितनी कील ठोकी…..क्रूस…… पर चढ़ाया। …..कल दूंगा जवाब सालों को……… हां, तूने इस राज को खोला……..और मुझे छोड़कर गई तो देख……मेरे हाथों में ये छूरा……। नर्म, मुलायम फूलों जैसे जिस्म को गोद-गोदकर……टुकड़े.टुकड़े कर दूंगा हरामजादी….अब मेरी है तो…..मेरी ही होकर…..रहना पड़ेगा…….। चल उधर हट…….और अब सोजा……। वह नम्मो को बिस्तर में जोर से परे ढकेलते चेताया । 

उसकी भेड़िये सी जलती-घूरती आंखों से नजर मिलते ही नम्मो का शरीर डर से कंपकपा उठा। उसके मुंह से निकली शराब के भभके ने अंदर ही अंदर नम्मो के जिस्म में घृणा का सैलाब पैदा कर दिया। वह पलंग के दूसरे सिरे पर सरककर सन्न हुई बैठ गई। काफी देर तक उसे कुछ सूझा ही नहीं। कमरे में एक भयानक सन्नाटा तारी था। शरीर सुन्न पड़ गया था। लगा, खोपड़ी में अचानक कोई घन चला रहा हो। बाहर बगीचे से झींगुरों के बोलने की आवाज के साथ अचानक चमगादढ़ की चीख गूंजी। कमरे के साथ नम्मो का हृदय भी एक अजाने भुतहा डर से भर गया। लगा जैसे कोई काली-कलूटी घनीभूत आकृति ठठाकर हंसते हुए पूछ रही हो “मजा आ रहा है सुहागरात में दुल्हनिया?” एकाएक वह आकृति झपटी और उसके अरमानों की पोटली के रंग-बिरंगे फूल, छीनती-बिखेरती गायब हो गई। उसके हाथ गीले गालों पर फिरे, अंगुलियाँ आँखों तक पहुँचीं। कजरा धुल गया था। कनखियों से देखा तो उसके सपनों के राजकुमार, सात जन्मों के हमसफर की घोड़े की तरह नाक बज रही थी। वह स्तब्ध बैठी रही। नीद तो भाग ही चुकी थी ।  दूसरे दिन सुबह नहाने-धोने, खाने-पीने के बाद देवर-देवरानियों, ननदों की हंसी -ठिठोली का दौर चला। सब मजाक करके खिलखिलाते रहे। नम्मो का चित्त कहीं और था। वह बनावटी हंसी भी हंस नहीं पा रही थी। क्या करे, क्या कदम उठाये ? उसकी समझ के बाहर हो चुका था। तभी ड्राईंगरूम में दूल्हे राजा का प्रवेश हुआ। शराब की खुमारी शायद पूरी तरह उतरी नहीं थी। लाल-लाल आंखें, रूखा-रूखा खलनायकों सा चेहरा। आते ही अड़ियल दुष्ट आवाज में बोला- “माम, मैं आपकी बहू को जरा अपने दोस्त शरद के यहां से घुमा लाऊं……? माम  मुस्कुराती बोली- जा रहा है तो अपने मामा का घर भी दिखाते लाना। जा बहू। “नम्मो निषेध में कुछ बोलना चाहती थी परन्तु एक अनागत भय ने जैसे उसका मुंह जबरदस्ती बंद कर दिया। दरवाजे के पास से खलनायकी आवाज गूंजी ” चलो……जेठानी हंसती हुई बोली” -ऐसे ही ले जाएगा क्या ? उसे तैयार तो हो लेने दे, नम्मो खड़ी होती हुई पल भर ठिठकी। उधर से दूल्हे राजा की रूखी आवाज आई” अरे ठीक तो है  क्या सजेगी।” वह कमरे से बाहर निकला। पीछे-पीछे बलि के बकरे की तरह नम्मो निकली। उसने स्कूटर स्टार्ट किया और आदेश दिया “बैठो……….”वह चुपचाप पीछे बैठ गई। उसके अवचेतन में कहीं रात की धमकी गूंज रही थी “तेरे मुलायम, फूल जैसे जिस्म को गोद. गोदकर,टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा…….।” और चमक रहा था धारदार नुकीला छूरा !  गाड़ी झटके के साथ आगे बढ़ी। नम्मो उस पति नामी दुष्ट के बदन को छूना नहीं चाहती थी परन्तु गाड़ी के झटके से खुद को गिरने से बचाने के लिए उसने, उसका कन्धा जोर से पकड़ा। वह गरजा” ठीक से बैठ साली, बैठना भी नहीं आता तुझे…….उसका मन हुआ कि चलते स्कूटर से कूद जाए, लेकिन यह संभव नहीं था। जैसे ही स्कूटर चौराहे पर पहुंचा, वहां पीपल पेड़ के नीचे बने मंच पर दस -बारह आवारा किस्म के युवा प्रौढ़ बावन परियों में रमे, ठहाका लगाते दिखे। दूल्हे ने पहले गाड़ी की गति कम की फिर स्कूटर को उनके एकदम पास ले जाकर चीखा “देखो सालों, तुम लोग कहते थे न कौन देगा तुझे लड़की …..मुझे शिखंडी कहते थे हरामियों……देख लो ये रही मेरी बीवी…….एकाएक उसने गाड़ी की स्पीड बढ़ाई और चिल्लाया “देखो हरामजादों, देखो इस शिखंडी का कमाल……! है ऐसी खूबसूरत बीवी तुम्हारी। ”  नम्मो को कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक उसने साड़ी का पल्लू खींचा और चेहरे को घूंघट के आवरण में ढाप लिया। वह, उसका दूल्हा नामी जीव उसे शहर की गली-कूचों में विद्रूप चेहरे से चीखता घुमाता रहा “देखो सालों, मुझे शिखंडी पुकारते थे न ……..कहते थे, कौन करेगा मुझसे शादी ? देख लो, ये रही मेरी बीवी …….”नम्मो घूंघट के अवगुंठन में भी शर्म से पानी-पानी हो रही थी।  वह क्या करे? उसकी समझ से परे था। करीब पौन घंटे शहर की गली-कूचों और सड़कों में घुमाने के बाद वह पति नामी जीव घर लौटा। गाड़ी से उतरते-उतरते नम्मो की नजर दूल्हे राजा से टकराई। लाल-लाल खूनी आंखें और कसाई चेहरा ! जुगुप्सा से उसने नजरें नीची कीं और चुपचाप अपने कमरे में घुस गई । ससुराल के दो-तीन दिन मानसिक रूप से नर्क की घोर यातनाओं में बीते। अश्लील गालियों और कत्ल की धमकियों से नम्मो का गुलाबी चेहरा और देह शाख से टूटे फूल की तरह मुरझाकर रह गये थे। चौथे दिन उसके पिता उसे बिदा कर ले जाने आये। खलनायक दूल्हा तो भेजने को तैयार ही नहीं होता था। परम्पराओं और रीति-रिवाजों का नाम लेकर ले- दे विदाई हो पाई। जाते-जाते कमरे के अंदर अकेले में धमकी मिली “सात फेरे लिये हैं साली, चुपचाप लौट आना। किसी से मेरा भेद बताया और नहीं लौटी तो वहीं तेरे घर आकर गोली मारूंगा समझी। ऐसा वैसा मत समझना हां………।”  नम्मो, पिता के साथ अपने विवाहित जीवन के अरमानों के बिखरे फूलों वाली चिंदी-चिंदी पोटली लेकर लौट आई । घर पहुंची तो हफ्तों से घनीभूत पीड़ा मां को देखकर ऐसी उमड़ी कि घंटों उसकी छाती से लगकर रोती रही। पिता से साफ़-साफ़ कह दिया कि वह अब कभी ससुराल नहीं लौटेगी। साल भर तलाक का मुकदमा चला। नम्मो को तलाक मिल गया। अरमानों की पूजा वाली फटी थिगड़ेल, चिंदी-चिंदी, सूखे फूलों की पोटली के टुकड़ों को उसने अपने आंसुओं की गंगा-जमुनी नदी में कब विसर्जित किया, उसे खुद ही पता न चला। – 


पप्पू गोल्ड

कमालपुर✍

वो बूढ़ी अम्मा…….


कल की शाम दोस्तों के बीच लंबी चर्चा-परिचर्चा मे कब रात के दस बज गए पता ही नही चला आखिरकार चौराहे पर जाकर एक एक लस्सी पीते हुए घर जाना तय हुआ !

लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई मे लगे ही थे कि एक लगभग 70-75 साल की माताजी कुछ पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गईं .. उनकी कमर झुकी हुई थी , धोती बहुत पुरानी थी मगर गन्दी ना थी .. चेहरे की झुर्रियों मे भूख तैर रही थी .. आंखें भीतर को धंसी हुई किन्तु सजल थीं .. उनको देखकर मन मे ना जाने क्या आया कि मैने जेब मे सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया ..

“दादी लस्सी पिहौ का ?”

मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक .. क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 2-4-5 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 35 रुपए की एक है .. इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे #गरीब हो जाने की और उन दादी के मुझे ठग कर #अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी !

दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए .. मुझे कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा ..

“ये काहे के लिए ?”

“इनका मिलाई के पियाइ देओ पूत !”

भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था .. रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी !
एकाएक आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा .. उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गईं …

अब मुझे वास्तविकता मे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार , अपने ही दोस्तों और अन्य कई ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए ना कह सका !

डर था कि कहीं कोई टोक ना दे .. कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर मे बैठ जाने पर आपत्ति ना हो .. लेकिन वो कुर्सी जिसपर मैं बैठा था मुझे काट रही थी ..

लस्सी कुल्लड़ों मे भरकर हम लोगों के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पड़ोस मे ही जमीन पर बैठ गया 

क्योंकि ये करने के लिए मैं #स्वतंत्र था .. इससे किसी को #आपत्ति नही हो सकती .. हां ! मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा .. लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बिठाया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा ..

“ऊपर बैठ जाइए साहब !”

अब सबके हाथों मे लस्सी के कुल्लड़ और होठों पर मुस्कुराहट थी

बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसूं .. होंठों पर मलाई के कुछ अंश और सैकड़ों दुआएं थीं
ना जाने क्यों जब कभी हमें 10-20-50 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं लेकिन सोचिए कभी कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं ?

क्या उन रुपयों को बीयर , सिगरेट , रजनीगंधा पर खर्च कर दुआएं खरीदी जा सकती हैं ?

दोस्तों .. जब कभी अवसर मिले अच्छे काम करते रहें भले ही कोई अभी आपका साथ ना दे लेकिन ऊपर जब अच्छाइयों का हिसाब किया जाएगा तब यही दुआएं देते होंठ तुम्हारी अच्छाइयों के गवाह बनेंगे !

Pappu gold kmalpur✍

एहसास ………

गाँव में कॉलेज नही था इस कारण पढ़ने के लिए में शहर आया था । यह किसी रिश्तेदार का एक कमरे का मकान था।

बिना किराए का था।

आस-पास सब गरीब लोगो के घर थे।

और में अकेला था सब काम मुजे खुद ही करने पड़ते थे। खाना-बनाना, कपड़े धोना, घर की साफ़-सफाई करना।

कुछ दिन बाद एक गरीब लडकी अपने छोटे भाई के साथ मेरे घर पर आई।

आते ही सवाल किया:-” तुम मेरे भाई को ट्यूशन करा सकते हो कयां?”

मेंने कुछ देर सोचा फीर कहा “नही”

उसने कहा “क्यूँ?

मेने कहा “टाइम नही है। मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब होगी।”

उसने कहा “बदले में मैं तुम्हारा खाना बना दूँगी।”

शायद उसे पता था की में खाना खुद पकाता हुँ

मैंने कोई जवाब नही दिया तो वह और लालच दे कर बोली:-बर्तन भी साफ़ कर दूंगी।”

अब मुझे भी लालच आ ही गया: मेने कहा-“कपड़े भी धो दो तो पढ़ा दूँगा।”

वो मान गई।

वो काम करती रहती और मैं उसके भाई को पढ़ा रहा होता। ज्यादा बात नही होती। उसका भाई 8वीं कक्षा में था। खूब होशियार था। इस कारण ज्यादा माथा-पच्ची नही करनी पड़ती थी। कभी-कभी वह घर की सफाई भी कर दिया करती थी।इस तरह से उसका रोज घर में आना-जाना होने लगा।

दिन गुजरने लगे। एक रोज शाम को वो मेरे घर आई तो उसके हाथ में एक बड़ी सी कुल्फी थी।

मुझे दी तो मैंने पूछ लिया:-” कहाँ से लाई हो’?

उसने कहा “घर से।

आज बरसात हो गई तो कुल्फियां नही बिकी।”

इतना कह कर वह उदास हो गई।

मैंने फिर कहा:-” मग़र तुम्हारे पापा तो समोसे-कचोरी का ठेला लगाते हैं?

उसने कहा- वो:-” सर्दियों में समोसे-कचोरी और गर्मियों में कुल्फी।”

और:- आज”बरसात हो गई तो कुल्फी नही बिकी मतलब ” ठण्ड के कारण लोग कुल्फी नही खाते।”

“ओह” मैंने गहरी साँस छोड़ी।

मैंने आज उसे गौर से देखा था। गम्भीर मुद्रा में वो उम्र से बडी लगी। समझदार भी, मासूम भी।

धीरे-धीरे वक़्त गुजरने लगा।

मैं कभी-कभार उसके घर भी जाने लगा। विशेषतौर पर किसी त्यौहार या उत्सव पर। कई बार उससे नजरें मिलती तो मिली ही रह जाती। पता नही क्यूँ?

एसे ही समय बीतता गया इस बीस

कुछ बातें मैंने उसकी भी जानली। की वो ; बूंदी बाँधने का काम करती है। बूंदी मतलब किसी ओढ़नी या चुनरी पर धागे से गोल-गोल बिंदु बनाना। बिंदु बनाने के बाद चुनरी की रंगाई करने पर डिजाइन तैयार हो जाती है।

मैंने बूंदी बाँधने का काम करते उसे बहुत बार देखा था।

एक दिन मेंने उसे पूछ लिया:-” ये काम तुम क्यूँ करती हो?”

वह बोली:-“पैसे मिलते हैं।”

“क्या करोगी पैसों का?”

“इकठ्ठे करती हूँ।”

“कितने हो गए?”

“यही कोई छः-सात हजार।”

“मुझे हजार रुपये उधार चाहिए।

जल्दी लौटा दूंगा।” मैंने मांग लिए।

उसने सवाल किया:-“किस लिए चाहिए?”

“कारण पूछोगी तो रहने दो।” मैंने मायूसी के साथ कहा।

वो बोली अरे मेंने तो “ऐसे ही पूछ लिया। तू माँगे तो सारे दे दूँ।” उसकी ये आवाज़ अलग सी जान पड़ी। मग़र मैं उस वक़्त कुछ समझ नही पाया। पैसे मिल रहे थे उन्ही में खोकर रह गया। एक दोस्त से उदार लिए थे । कमबख्त दो -तीन बार माँग चूका था।

एक रोज मेरी जेब में गुलाब की टूटी पंखुड़ियाँ निकली। मग़र तब भी मैं यही सोच कर रह गया कि कॉलेज के किसी दोस्त ने चुपके से डाल दी होगी।

उस समय इतनी समझ भी नही थी।

एक दिन कॉलेज की मेरी एक दोस्त मेरे घर आई कुछ नोट्स लेने। मैंने दे दिए।

और वो मेरे घर के बाहर खडी थी और मेरी दोस्त को देखकर बाहर से ही तुरंत वापीस घर चली गई।

और फ़िर दूसरे दिन दो पहर में ही आ धमकी।

आते ही कहा:-” मैं कल से तुम्हारा कोई काम नही करूंगी।”

मैने कहा “क्यूँ?

काफी देर तो उसने जवाब नही दिया। फिर धोने के लिए मेरे बिखरे कपड़े समेटने लगी।

मैने कहा “कहीं जा रही हो?”

उसने कहा “नही। बस काम नही करूंगी।

और मेरे भाई को भी मत पढ़ाना कल से।”

मैने कहा अरे”तुम्हारे हजार रूपये कल दे दूंगा। कल घर से पैसे आ रहे हैं।” मुझे पैसे को लेकर शंका हुई थी।इस कारण पक्का आश्वासन दे दिया।

उसने कहो “पैसे नही चाहिए मुजे।”

मेने कहा “तो फिर ?”

मैने आँखे उसके चेहरे पर रखी और

उसने एक बार मुजसे नज़र मिलाई तो लगा हजारों प्रश्न है उसकी आँखों में। मग़र मेरी समझ से बाहर थे।

उसने कोई जवाब नही दिया।

मेरे कपड़े लेकर चली गई।

अपने घर से ही घोकर लाया करती थी।

दूसरे दिन वह नही आई।

न उसका भाई आया।

मैंने जैसे-तैसे खाना बनाया। फिर खाकर कॉलेज चला गया। दोपहर को आया तो सीधा उसके घर चला गया। यह सोचकर की कारण तो जानू काम नही करने का।

उसके घर पहुंचा तो पता चला की वो बीमार है।

एक छप्पर में चारपाई पर लेटी थी अकेली। घर में उसकी मम्मी थी जो काम में लगी थी।

मैं उसके पास पहुंचा तो उसने मुँह फेर लिया करवट लेकर।

मैंने पूछा:-” दवाई ली क्या?”

“नही।” छोटा सा जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।

मैने कहा “क्यों नही ली?

उसने कहा “मेरी मर्ज़ी। तुझे क्या?

“मुझसे नाराज़ क्यूँ हो ये तो बतादो।”

“तुम सब समझते जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।

मैने कहा “क्यों नही ली?

उसने कहा “मेरी मर्ज़ी। तुझे क्या?

“मुझसे नाराज़ क्यूँ हो ये तो बतादो।”

“तुम सब समझते हो, फिर मैं क्यूँ बताऊँ।”

“कुछ नही पता। तुम्हारी कसम। सुबह से परेसान हूँ। बता दो।”

” नही बताउंगी। जाओ यहाँ से।” इस बार आवाज़ रोने की थी।

मुझे जरा घबराहट सी हुई। डरते-डरते उसके हाथ को छूकर देखा तो मैं उछल कर रह गया। बहुत गर्म था।

मैंने उसकी मम्मी को पास बुलाकर बताया।

फिर हम दोनों उसे हॉस्पिटल ले गए।

डॉक्टर ने दवा दी और एडमिट कर लिया।

कुछ जाँच वगेरह होनी थी।

क्यूंकि शहर में एक दो डेंगू के मामले आ चुके थे।

मुझे अब चिंता सी होने लगी थी।

उसकी माँ घर चली गई। उसके पापा को बुलाने।

मैं उसके पास अकेला था।

बुखार जरा कम हो गया था। वह गुमसुम सी लेटी थी। दीवार को घुर रही थी एकटक!!

मैंने उसके चैहरे को सहलाया तो उसकी आँखों में आँसू आ गए और मेरे भी।

मैंने भरे गले से पूछा:- “बताओगी नही?”

उसने आँखों में आँसू लिए मुस्कराकर कहा:-” अब बताने की जरूरत नही है। पता चल गया है कि तुझे मेरी परवाह है। है ना?”

मेरे होठों से अपने आप ही एक अल्फ़ाज़ निकला:-

” बहुत।”

उसने कहा “बस! अब में मर भी जाऊँ तो कोई गिला नही।” उसने मेरे हाथ को कस कर दबाते हुए कहा।

उसके इस वाक्य का कोई जवाब मेरे लबों से नही निकला। मग़र आँखे थी जो जवाब को संभाल न सकी। बरस पड़ी।

वह उठ कर बैठ गई और बोली रोता क्यूँ है पागल? मैने जिस दिन पहली बार तेरे लिए रोटी बनाई थी उसी दिन से चाहती हूँ तुजे। एक तू था पागल । कुछ समझने में इतना वक़्त ले गया।”

फिर उसने अपने साथ मेरे आँसू भी पोछे।

फीर थोडी देर बाद उसके घर वाले आ गए।

रात हो गई थी। उसकी हालत में कोई सुधार नही हुआ।

फिर देर रात तक उसकी बीमारी की रिपोर्ट आ गई।

बताया गया की उसे डेंगू है।

और ए जान कर आग सी लग गई मेरे सीने में।

खून की कमी हो गई थी उसे। पर खुदा का शुक्र है की मेरा खून मैच हो गया ब

था उसका भी। दो बोतल खून दिया मैंने तो जरा शकून सा मिला दिल को।

उस रात वह अचेत सी रही।

बार-बार अचेत अवस्था में उल्टियाँ कर देती थी।

मैं एक मिनिट भी नही सोया उस रात।

डॉक्टरों ने दूसरे दिन बताया कि रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या तेजी से कम हो रही है। खून और देना होगा। डेंगू का वायरस खून का थक्का बनाने वाली प्लेटलेट्स पर हमला करता हैं । अगर प्लेटलेट्स खत्म तो पुरे शरीर के अंदरुनी अंगों से ख़ून का रिसाव शुरू हो जाता है। फिर बचने का कोई चांस नही।

मैंने अपना और खून देने का आग्रह किया मग़र रात को दिया था इस कारण डोक्टर ने मना कर दिया ।

फीर मैंने मेरे कॉलेज के दो चार दोस्तों को बुलाया। साले दस एक साथ आ गए। खून दिया। हिम्मत बंधाई। पैसों की जरूरत हो तो देने का आश्वासन दिया और चले गए। उस वक़्त पता चला दोस्त होना भी कितना जरूरी है। पैसों की कमी नही थी। घर से आ गए थे।

दूसरे दिन की रात को वो कुछ ठीक दिखी। बातें भी करने लगी।

रात को सब सोए थे। मैं उसके पास बैठा जाग रहा था।

उसने मुजे कहा:- ” पागल बीमार मैं हूँ तू नही। फिर ऐसी हालत क्यों बनाली है तुमने?”

मैंने कहा:-” तू ठीक हो जा। मैं तो नहाते ही ठीक हो जाऊंगा।”

उसने उदास होकर पूछा ।:-” एक बात बता?”

मैने कहा”क्यां?”

उसने कहा “मैंने एक दिन तुम्हारी जेब में गुलाब डाला था तुजे मिला?

मैने कहा “सिर्फ पंखुड़ियाँ मिली थी “हाँ”

उसने कहा “कुछ समझे थे?”

“नही।”

“क्यूँ?”

“सोचा था कॉलेज के किसी दोस्त की मज़ाक है।”

“और वो रोटियाँ?”

“कौनसी?”

“दिल के आकार वाली।”

“अब समझ में आ रहा है।”

“बुद्दू हो”

“हाँ”

फिर वह हँसी। काफी देर तक। निश्छल मासूम हंसी।

“कल सोए थे क्या?”

“नही।”

“अब सो जाओ। मैं ठीक हूँ मुझे कुछ न होगा।”

सचमुच नींद आ रही थीं।

मग़र मैं सोया नही।

मग़र वह सो गई।

फिर घंटेभर बाद वापस जाग गई।

मैं ऊंघ रहा था।

“सुनो।”

“हाँ।मैं नींद में ही बोला।

“ये बताओ ये बीमारी छूने से किसी को लग सकती है क्या?”

“नही, सिर्फ एडीज मच्छर के काटने से लगती है।”

“इधर आओ।”

मैं उसके करीब आ गया।

“एक बार गले लग जाओ। अगर मर गई तो ये आरज़ू बाकी न रह जाए।”

“ऐसा ना कहो प्लीज।” मैं इतना ही कह पाया।

फिर वो मुझसे काफी देर तक लिपटी रही और सो गई।

फिर उसे ढंग से लिटाकर मैं भी एक खाली बेड पर सो गया।

मग़र सुबह मैं तो उठ गया। और वो नही उठी। सदा के लिए सो गई। मैंने उसे जगाने की बहुत कोशिश की थी।पर आँखे न खोली उसने।वो इस सँसार को मुझे छोडकर इस दुनिया से जा चुकी थी। 

मुझे रोता बिलखता छोड़कर।
Pappu gold Kmalpur ✍

Kbhi kbhi……

कभी रेत पर..तो कभी शीशे पर..

अपनी ऊँगलियों से जिसे…लिखती हूँ बार-बार…

हाँ…वो नाम हो तुम…..॥
मेरी खिड़की के पास वाली दिवार पे लिखा..

जो हर साल..क‌ई रंगों से पुत गया..

हाँ…वही नंबर हो तुम…..॥
जिसके लिये बार-बार लिखती हूँ..

और फिर पढ़ती हूँ बार-बार…

हाँ…वही अल्फाज़ हो तुम…..॥


जिस ख्वाब ने..मुझे बरसों से…सोने नही दिया..

मेरे तकिये के नीचे रखा..

हाँ..वही अधूरा ख्वाब हो तुम…
तन्हाई में और दर्द में..

मेरे चेहरे पर जो..मुस्कान लाये..

हाँ..वो प्यारा सा..अहसास हो तुम…
सुबह उठते ही..

जो सपने मेरे…टुट से जाते हैं..

हाँ…वो टूटा हुआ सपना हो तुम…
मेरे लबों पर आते-आते,

अचानक ना जाने कहीं…खो सी जाती है..

हाँ…वहीं प्यारी सी..मुस्कान हो तुम…
सब तो जानते हो तुम..इतनी दूर रहकर भी..

सबसे ज्यादा मेरे..करीब हो तुम..

तो फिर क्या वजह है..कि बरसों से..खामोश हो तुम…..

पप्पू गोल्ड कमालपुर✍

​“हैप्पी बर्थडे टू यू…”………

👉रात के बारह बजे अचानक मेरे कमरे की बत्ती जली. नींद में से हड़बड़ाकर आंख मलते हुए मैं उठी, तो देखा बेटा, बेटी और ‘ये’ खड़े हैं. स्वीटी मुझसे “हैप्पी बर्थडे मम्मा” कहकर लिपट गई. पास खड़े तनय ने भी झप्पी डाल दी और इन्होंने भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए मुझे विश किया. बच्चों ने आनन-फानन में मुझसे केक कटवाया, गिफ्ट्स दिए और फिर गिफ्ट्स खोलने का आग्रह भी करने लगे. दोनों गिफ्ट्स बेहद ख़ूबसूरत थे. बच्चे छांट के लाए थे. एक प्यारी-सी साड़ी और एक सुंदर-सी घड़ी. बच्चों के लिखने का ढंग मन मोह गया- ‘हमारी प्यारी मम्मी के लिए.’ इन्होंने भी एक शॉल गिफ्ट की- ‘दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला के लिए.’ इनकी राइटिंग उस शॉल के पैकेट पर चमक रही थी. मैंने सभी को धन्यवाद दिया.

मैं भाव-विह्वल हो गई. किसी भी स्त्री को इतने प्यार करनेवाले परिवार के अलावा और भला क्या चाहिए? ईश्‍वर ने मुझे सुंदरता दिल खोल के दी थी, उस पर मेरा सादगी भरा अंदाज़ तो इन्हें बहुत ही पसंद था.

तभी तो सत्रह साल पहले मेरी चचेरी बहन को देखने आए यह, मुझे दो कपड़ों में ही ब्याह लाए थे. इनकी ज़िद थी कि शादी करूंगा, तो स़िर्फ ‘नीलम’ से, वरना आजीवन कुंआरा ही रह जाऊंगा. मैंने भी सत्रह साल का विवाहित जीवन बख़ूबी निभाया था, इसीलिए आज एक ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन जी रही थी.

बच्चे अपने कमरे में जाकर सो चुके थे. ये भी मुझे अपनी बांहों में ही भींचे हुए सो गए थे. सुबह जल्दी उठना था, इसलिए यादों की सुनहरी परतों से निकलना पड़ा. अगली सुबह बच्चों का टिफिन तैयार करना, घर-बाहर के काम और विश करनेवाले फोन और पड़ोसी… दिन आनन-फानन में कब बीत गया, पता ही नहीं चला. शाम को इन्होंने आते ही ऐलान कर दिया कि खाना बाहर कहीं खाएंगे.

दिनभर की थकी-हारी मैं थोड़ी रिलैक्स्ड हो गई. इनकी पिछले बर्थडे पर दी हुई गुलाबी शिफॉन की साड़ी मैंने पहनी और उस पर अपना हैदराबादी पर्ल का सेट डाला. हल्का मेकअप करके मैं तैयार थी. बच्चों ने और इन्होंने कॉम्प्लीमेंट दिया कि मैं बहुत अच्छी लग रही हूं. मैंने मुस्कुराते हुए ‘थैंक्यू’ कहा और हम सब गाड़ी में बैठ गए.

होटल घर से काफ़ी दूर था. रास्तेभर हल्की-फुल्की बातों में बच्चे डिसाइड करने में लगे रहे कि खाने में क्या ऑर्डर करेंगे. ख़ैर, होटल आते ही हम अंदर प्रविष्ट हुए, तो कहीं से इनकी पूरी मित्र-मंडली आ गई. “हैप्पी बर्थडे टू यू” की ध्वनि से होटल का वो हिस्सा गूंज उठा.

मैं अचंभित थी. सभी मुझे विश कर रहे थे और गिफ्ट्स दे रहे थे. कुछ देर बाद वेटर एक बड़ा-सा केक ले आया. ‘मेरी ख़ूबसूरत संगिनी के लिए’ केक पर भी इनकी छाप-सी लगी थी. विवाह के सत्रह वर्ष होने के बाद भी मैं नई-नवेली दुल्हन की तरह शरमा रही थी.

भोजन के बीच शरारतें, हंसी-ठिठोली चलती रही. रात को घर आते वक़्त मैंने इनसे प्रेम भरी शिकायत की कि इस सबकी क्या ज़रूरत थी, मैं कोई बच्ची थोड़े हूं, पर इन्होंने हंसते हुए कहा, “मेरे लिए तो हो.” रातभर प्यारभरी मीठी-मीठी बातें और शरारतें होती रहीं और इस बीच कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. सुबह मैं चाय बनाकर बेडरूम में ले गई. पर्दा हटाया, तो खिड़की से झांककर सूरज की किरणें अठखेलियां करने लगीं. मैंने इनको देखा. बिस्तर पर गहरी नींद में ये कितने अच्छे लग रहे थे. बस, बालों से स़फेदी झांक रही थी और आंखों के नीचे थोड़ी स्याही-सी हो गई थी, पर अभी भी कितने अच्छे लगते हैं. जब मैं इनसे पहली बार मिली थी, तो कितने आकर्षक लगते थे. इनके द्वारा प्रपोज़ करने पर मैं भी तो कहां मना कर पाई थी.

शादी के बाद के सारे साल पंख लगाकर उड़ चले थे. हम जहां भी जाते, यही सुनने को मिलता कि वाह क्या जोड़ी है. कितने पुरस्कार बेस्ट कपल के हमने जीते थे…

स्वीटी ने नाश्ता बनाने के लिए आवाज़ लगाई, तो मेरी तंद्रा भंग हुई. इन्हें उठाकर चाय देकर मैं अपना काम निपटाने चली गई. छुट्टीवाले दिन बच्चे और ये पिकनिक जाने के मूड में थे. मैंने मना कर दिया. हालांकि ये बहुत नाराज़ हुए, पर फिर मान गए. उनके लिए सैंडविच, केक, स्नैक्स बनाकर मैंने उन्हें रवाना किया और फिर थोड़ी देर सुस्ताने लगी. आज कई दिनों के बाद कुछ फुर्सत मिली थी. आज बहुत दिनों बाद मैं अकेली थी.

बाई भी अपना काम करके चली गई थी. मैंने चाय बनाई और लॉबी में धूप सेंकने चली गई. चाय की चुस्कियों के बीच मुझे अचानक बच्चों के बेडरूम का दरवाज़ा याद आया. वो खुला था, उसे बंद करना था. उस दरवाज़े पर ग्लास लगा था, जिसमें बाहर से अपना प्रतिबिंब दिखाई देता था और अंदर से वो पारदर्शी था. बच्चों ने पता नहीं कौन-सी मूवी देखने के बाद यह लगवाया था.

मैंने दरवाज़ा बंद किया. अपना अक्स नज़र आया. चूंकि धूप मुझ पर पड़ रही थी. मेरी छवि साफ़ दिख रही थी. मैंने स्वयं को निहारना शुरू किया. अपने ड्रेसिंग टेबल में तो मुझे इतनी बारीक़ी से अपना अक्स नहीं दिखता था. मैंने देखा कि मेरे बाल काफ़ी चमक रहे थे. मेहंदी का रंग बालों पर दिन में ऐसा दिखता होगा, मैंने सोचा न था. मैं शीशे के पास होती गई.

मेरी आंखों के नीचे कालापन, चेहरे पर हल्की रेखाएं, दाग़-धब्बे, तिल… उ़फ्! मैंने दुबारा ख़ुद को अविश्‍वास से देखा, पर यह मैं ही थी. मेरा दिल धक् से रह गया. मैंने घूम-घूम के स्वयं को देखना शुरू किया. पेट पर चर्बी, कमर पर सिलवटें, नितंब भी भारी हो चुके थे. गर्दन व हाथों की स्किन तो बहुत ही ड्राई लग रही थी. क्या यह मैं हूं? ऐसा लगा, जैसे मैं स्वयं को पहली बार देख रही थी. मन से एक आवाज़ आई, “तैंतालिस साल की औरत और कैसी हो सकती है?”

मैंने ख़ुद ही को जवाब दिया कि नहीं-नहीं सहेलियां, रिश्तेदार, बच्चे, पड़ोसी और यहां तक कि ये भी मुझे बार-बार ख़ूबसूरत क्यों बुलाते हैं? आंखों से जो दिख रहा था, उसे मेरा मन मानने को तैयार नहीं था, पर बुद्धि भीतर से कहीं जानती थी कि इन

दो-एक सालों में मुझ पर मोटापा आना शुरू हो गया था.

गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में कभी ख़ुद पर इतना ध्यान ही नहीं दिया. सब मेरी तारीफ़ करते रहे, तो मैं भी इस ओर उदासीन ही रही. पर अब मेरा धैर्य जवाब दे रहा था. सारा दिन मैं हैरान-परेशान स्वयं को शीशे में देखती रही और आकलन करती रही कि क्या मैं सचमुच सुंदर हूं? मन बेहद परेशान और उद्विग्न हो उठा.

देर रात ये और बच्चे आए, तो मैं काफ़ी संयत हो चुकी थी. ब्यूटीफुल की अवधारणा को अपने लिए मैंने नकार-सा दिया था. चेहरे पर इतनी झुर्रियां, तिल, दाग़ होते हुए मैं भला कैसे ख़ूबसूरत हो सकती थी. शरीर पर भी चर्बी की परत चढ़ चुकी थी.

व्यायाम व मेकअप, फेशियल व कॉस्मेटिक सर्जरी के फेर में मैं कभी पड़ी नहीं और उम्र के इस पड़ाव पर अब कैसा रंज…? मेरा इनके साथ पार्टियों में जाने का उत्साह घटने लगा. बच्चे भी जब किसी साथी के अभिभावक से मिलाने को कहते, तो मैं मना कर देती.

दिन के फंक्शन्स में मैंने जाना बिल्कुल ही बंद कर दिया. मेरी चुहल, हंसी-ठिठोली सब बंद हो गई. मैं उदास और गंभीर रहने लगी. घर के वातावरण पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा. बच्चे सहमे-सहमे से रहने लगे. जिस घर में इतनी पार्टियां, लोगों का आना-जाना लगा रहता था, वहां सन्नाटा-सा पसर गया था. इन्होंने कई बार मुझसे पूछा, पर मैं कोई वजह न बता पाई. कहती भी क्या कि मैं सच्चाई का सामना नहीं कर पा रही हूं… मुझे अपनी डबल चिन, काले होंठों, झाइयोंवाले गालों के साथ बाहर निकलने में शर्म आती है? लेटेस्ट फैशन के कपड़े मुझे अब टाइट होने लगे हैं? मेरी समस्याओं का विकल्प था- जिम, ब्यूटीपार्लर या कॉस्मेटोलॉजी, पर मैं ठहरी ओरिजनैल्टी में यक़ीन रखनेवाली.किसी भी तरह का दिखावा मुझे पसंद नहीं था. बच्चों से, इनसे, सगे-संबंधियों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों से मैं कटने लगी.

ब्यूटी को लेकर भी अधेड़ अवस्था में डिप्रेशन हो सकता है? कोई मेरी व्यथा सुनता, तो हंसता… पर अपनी पीड़ा तो ख़ुद ही समझ आती है. मन में उम्र ने इतने घाव दे रखे थे कि किसे दिखाती? जीवन सामान्य होकर भी मानो सामान्य नहीं रह गया था.

दिन-सप्ताह-महीने गुज़र गए और आ गया एक बार फिर से मेरा ‘जन्मदिन’. इस बार बच्चे बाहर गए हुए थे. रात को बारह बजे इन्होंने मुझे जगा के विश किया. “मेरा ख़ूबसूरत प्यार और दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत पत्नी के लिए…” यह कहकर इन्होंने हाथ बढ़ाया. इनके हाथ में लाल रंग का महकता हुआ गुलाब था.

बस! मुझसे और सहन नहीं हुआ. मैं लगभग चीख ही पड़ी, “क्यों जले पर नमक छिड़क रहे हो? मैं चौवालिस की हो चुकी हूं और कहीं से भी सुंदर नहीं हूं.”

“ओह! तो यह बात है. इतने महीनों से यह चिंगारी दबाए बैठी थी.” इन्होंने कहा.

मैं फफक-फफककर रो रही थी. मुझे लगता था कि इनका प्यार और तारीफ़ मेरी ख़ूबसूरती के कारण ही था और वो अब निःसंदेह कम हो जाएगा. मेरी सबसे बेस्ट क्वालिटी ही मेरी नहीं रही थी और उसे मैं वापस भी नहीं ला सकती थी.

इन्होंने मुझे अपनी आगोश में ले लिया. मेरे आंसू पोंछे. बिस्तर पर बैठाया और कहना शुरू किया, “पगली! मेरी नज़रों में तुम अब भी सुंदर हो. चौवालिस की हो गई, तो क्या हुआ? मेरे लिए तुम अब भी बेस्ट हो.” मैं ध्यान से इनके चेहरे के उतार-चढ़ाव परख रही थी. इनके चेहरे पर अभी भी शरारत खेल रही थी. “तुम्हारी तन की ही नहीं, पाक-साफ़ मन की ख़ूबसूरती के हम क़ायल हैं. इतने साल इतनी निष्ठा से तुमने शादी को निभाया है. पुरुष तो फिर भी कहीं इधर-उधर फिसल जाते हैं, पर स्त्रियां ज़्यादातर एक ही की होकर रह जाती हैं और फिर तुम तो इतनी आकर्षक हो, इसके बाद भी किसी पराए पुरुष को नहीं देखा, क्या यह कम बात है?”

मैं इनके तर्कों के आगे निरुत्तर थी. “उम्र तो आएगी ही और उसके साथ सारे लक्षण भी आएंगे. उम्र को छिपाना मूर्खता है. झुर्रियों से भरे चेहरे पर कितना भी मेकअप पोत ले कोई, बाल डाई कर ले, हमारी फूहड़ता ही झलकेगी. तो क्यों न एज को ग्रेसफुली स्वीकार करें.”

किसी दार्शनिक की तरह ये बोले जा रहे थे और मेरे पूर्वाग्रह घुलते जा रहे थे.

“क्या मैं बूढ़ा नहीं हो रहा हूं? तो क्या तुम मुझे कम प्यार करने लगोगी या बच्चे हमारा ख़्याल नहीं रखेंगे?” मैंने ‘ना’ में सिर हिलाया.

“जब हम किसी के साथ रहने लगते हैं, तो उसकी बाह्य नहीं, आंतरिक सुंदरता के भी क़ायल होते हैं और अंदर से तुम बहुत सुंदर हो.”

इन्होंने मुझे गुदगुदाया, तो तनावपूर्ण माहौल में मस्ती आ गई. मैंने आंसू पोंछे. मुझे तसल्ली हो गई थी कि उम्र बढ़ने के साथ बदलावों के कारण यह मुझे छोड़कर तो नहीं जाएंगे.

“पगली, इस उम्र में फिट रहना, सेहत का ध्यान रखना, ख़ूबसूरती पर ध्यान देने से ज़्यादा ज़रूरी है और फिर तुम अभी चौवालिस की लगती ही कहां हो?” इन्होंने मेरी आंखों में झांका, तो मुझे शर्म आ गई. चौवालिस की उम्र का यह बर्थडे मुझे अब बुरा नहीं लग रहा था….

​वह एक पल…..

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कविता अपने ख़्यालों में इस क़दर खो गई थी कि उसे यह आभास ही नहीं हुआ कि कब श्याम उसके पास आकर खड़े हो गए, जल्दी से नाश्ता दे दो, मुझे ऑफ़िस के लिए देर हो रही है.फफ कविता सकपका गई. कुछ बोल न सकी. चुपचाप टेबल पर नाश्ता लगा दिया. श्याम नाश्ता करने के बाद बोले, “कविता, मैंने रूपा दीदी, सोना और श्वेता को फ़ोन कर दिया है, सब लोग शाम तक आ जाएंगे. रात के खाने में सबकी पसंद की एक-एक डिश बनवा देना. तुम्हें तो सबकी पसंद मालूम ही है.” श्याम आदेश उछालकर ऑफ़िस चले गए.

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कविता मन ही मन सोचने लगी. बस, दूसरों की पसंद का ही तो ध्यान रखती आई है वह. अपनी पसंद तो वह इतने बरसों में भूल ही चुकी है. ख़ैर, आज वह अपना मूड नहीं ख़राब करेगी. फ़िलहाल, वह अपने बेटे श्लोक की पसंद का नाश्ता ख़ुद बनाएगी.

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दो साल विदेश में रहकर आया है श्लोक. मुंबई से बीटेक करने के बाद उसे लंदन में एमबीए करने का मौक़ा मिला, तो कलेजे पर पत्थर रखकर कविता ने उसे जाने की अनुमति दे दी थी. मन में हमेशा संशय के बादल घुमड़ते रहते थे. ‘क्या पता, पढ़ाई पूरी करने के बाद श्लोक को वहां जॉब का ऑफ़र मिले, तो वह वहीं बसने का फैसला कर ले और फिर किसी विदेशी लड़की से शादी करके…?’

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बस, इसके आगे सोचने की हिम्मत नहीं कर पाती थी वह. उनके रिश्तेदार और जान-पहचान के लोग भी यदा-कदा इस तरह के शगू़फे छोड़कर कविता का दिल धड़काते रहते थे. अब इकलौते बेटे से ही तो उसकी सारी उम्मीदें जुड़ी थीं. वह भगवान से यही प्रार्थना करती रहती कि उसका श्लोक अपनी ज़मीन और अपने संस्कारों से हमेशा जुड़ा रहे.

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उसकी दुआ रंग लाई. उसके दिए संस्कारों की बदौलत ही श्लोक ने लंदन में मिल रहे जॉब को ठुकरा दिया और दिल्ली की एक मल्टीनेशनल कंपनी से मिले ऑफ़र को स्वीकार कर लिया. लंदन से वापस आते ही उसने वह कंपनी ज्वाइन कर ली. मात्र दो महीने ही तो हुए थे उसे वापस आए, लेकिन लड़कीवालों की लाइन लग गई. एक से एक लड़कियों के फ़ोटोग्राफ़ और बायोडाटा. अब शादी तो करनी ही थी उसकी, लेकिन निर्णय लेना कठिन हो गया था. वैसे भी कविता का निर्णय कोई मायने नहीं रखता था, इसीलिए तो श्याम ने अपनी दोनों बहनों और बेटी को बुलाया था.

आज श्लोक की शनिवार की छुट्टी थी. वह शनिवार और रविवार को देर तक सोता रहता था. आज कविता उसके लिए उसकी पसंद के आलू परांठे बनानेवाली थी. सारी तैयारी करके उसने जाकर देखा, तो वह अभी सो रहा था.

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कविता लड़कियों के फ़ोटो लेकर बैठ गई और बड़ी हसरत से एक-एक फ़ोटो देखने लगी. उसे अच्छी तरह पता था कि फैसला लेना तो दूर की बात रही, दोनों ननदों के आने के बाद उसे तस्वीरें देखना भी नसीब नहीं होगा. अपनी सास और ननदों से मिली उपेक्षा का दंश तो वह ससुराल में पहले दिन से ही झेलती आई थी. यह तो एक इत्तेफ़ाक ही था कि उसके ससुर ने अपने दोस्त की सांवली-सलोनी पुत्री को अपने इकलौते बेटे के लिए पसंद कर लिया था. दरअसल, उन्होंने उसके रंग की बजाय उसके गुणों को देखा था, लेकिन उसका सांवला रंग उसके सारे गुणों पर भारी पड़ गया.

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श्याम तो अपने नाम के विपरीत थे. वे भी अपनी मां और बहनों की तरह बिल्कुल गोरे-चिट्टे थे और गोरे लड़के की सांवली पत्नी उन लोगों के गले नहीं उतर रही थी, पर यह भी सच है कि श्याम ने कभी उस पर कटाक्ष नहीं किया, लेकिन उनकी मां-बहनों ने जो ज़ख़्म कविता को दिए, वे उसका मरहम भी नहीं बन सके. वह तो कविता की क़िस्मत अच्छी थी कि दोनों बच्चे गोरे पैदा हुए. बेटे के जन्म के बाद वह अभी उसे मुग्ध भाव से निहार ही रही थी कि सोना की आवाज़ उसके कानों से टकराई, “थैंक गॉड कि यह भइया पर गया है, वरना हमारा खानदान ही काला हो जाता.”

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कविता का हृदय छलनी होकर रह गया, फिर बेटी के जन्म के समय भी कुछ ऐसा ही सुनने को मिला. इस बार उसे आहत करनेवाली रूपा दीदी थीं, “चलो, अच्छा हुआ कि लड़की हमारे जैसी है, वरना कविता की तरह होती, तो इसका रिश्ता तय करने में श्याम के जूते घिस जाते.”

कविता ने सारा दर्द अंदर ही समेट लिया और अपने ख़ूबसूरत बच्चों की परवरिश में व्यस्त हो गई. उसने हालात से समझौता कर अपनी सांवली रंगत को अपनी कमज़ोरी ही मान लिया था और इसकी भरपाई उसने सबकी ग़ुलामी बजाकर की थी. एकमात्र ससुरजी ही थे, जो उसके गुणों की सराहना करते थे और उसे समझते थे, लेकिन उनके देहांत के साथ ही स्नेह का वह सेतु भी टूट गया. अब तो सासू मां भी नहीं रहीं, लेकिन दोनों ननदें यदा-कदा आकर उसके सांवलेपन का एहसास तो करा ही जाती हैं.

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चार बजे बड़ी ननद रूपा दीदी अपने पति के साथ आ गईं. आते ही फ़रमाइश शुरू हो गई, “कविता पहले हमें बढ़िया-सी कॉफ़ी पिला दो.”

पांच बजे छोटी ननद सोना और बेटी श्वेता अपने-अपने पति और बच्चों के साथ पहुंच गईं. श्याम भी ऑफ़िस से आ गए थे. सभी लोग आराम से ड्रॉइंग रूम में बैठकर स्नैक्स और कॉफ़ी का लुत्फ़ उठा रहे थे और लड़कियों के फ़ोटोग्राफ़्स और बायोडाटा पर खुलकर चर्चा हो रही थी. बस, कविता ही थी जो मूकदर्शक बनी बैठी थी.

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“अच्छा हुआ श्याम, जो तुमने हमारे पापा की तरह श्लोक के लिए कोई ऐसी-वैसी लड़की पसंद नहीं की.” रूपा दीदी श्याम से कह रही थीं.

“हां भइया, जिस तरह से पापा ने भाभी को आपके ऊपर थोप दिया था, वह तो आप ही थे, जो इनके साथ एडजस्ट कर लिया, वरना आजकल के लड़के तो ख़ुद से ज़रा भी उन्नीस लड़की बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं.” अब सोना कैसे चुप रहती. उनके कमेंट्स से आहत कविता अभी संभलने की कोशिश कर ही रही थी कि श्वेता की भी बारी आ गई, “हां पापा, मेरे भइया इतने हैंडसम हैं, इनके लिए तो चांद-सी भाभी लानी होगी.”

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कविता को लगा कि किसी ने उसके कानों में पिघला हुआ शीशा उड़ेल दिया हो. ननदें तो पराई हैं, लेकिन अपनी कोखजाई बेटी… वह उसे हैरानी से देखती रह गई. कहते हैं, बेटियां मां का दुख-दर्द समझती हैं, लेकिन श्वेता ने कभी अपनी मां की कद्र नहीं की, अपने रंग- रूप के घमंड में चूर हमेशा मां का दिल ही दुखाती रही है. बड़ी मुश्किल से कविता ने अपने आंसुओं को बहने से रोका.

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श्याम बोले, “फ़ोटो में तो सभी लड़कियां अच्छी दिख रही हैं. तुम लोगों को जो लड़की सबसे अच्छी लग रही हो, उसे कल ही देखने का प्रोग्राम बना लेते हैं. हमें तो अब जल्दी से श्लोक की शादी कर डालनी है.”

तभी सोना के पति हंसकर बोले, “हम लोगों की पसंद-नापसंद से क्या करना है? शादी तो श्लोक को करनी है, लड़की भी उसी की पसंद की होनी चाहिए.”

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“हां श्लोक, तुम बताओ. इन तस्वीरों में से तुम्हें कौन-सी लड़की सबसे ज़्यादा पसंद है?” रूपा दीदी ने श्लोक से पूछा.

“बुआ, सच तो यह है कि मुझे इनमें से कोई भी लड़की पसंद नहीं है.” श्लोक ने बेबाक़ी से कहा, तो सभी हैरान रह गए. कविता को लगा कि शायद श्लोक ने ख़ुद के लिए कोई लड़की पसंद की हो. उसने सोचा कि सबके जाने के बाद अकेले में श्लोक से बात करेगी और उसकी जो भी पसंद होगी श्याम से स्वीकार करने का अनुरोध ज़रूर करेगी. कमरे में एक चुप्पी-सी छा गई थी.

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उस चुप्पी को तोड़ा श्वेता ने, “भइया, आपकी बात से तो ऐसा लग रहा है कि आपने किसी लड़की को पसंद कर लिया है. अब तो हमें बता दीजिए कि वह कौन है?”

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“नहीं श्वेता, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं लव मैरेज में विश्वास नहीं करता. शादी तो मैं घरवालों की पसंद से ही करूंगा.”

श्लोक जल्दी से बोल पड़ा. श्वेता के पति से रहा नहीं गया, “भइया, तो फिर इतनी सुंदर तस्वीरों में से आपको कोई भी पसंद क्यों नहीं आ रही है? आख़िर कैसी लड़की चाहिए आपको?”

“बताऊं?” श्लोक कविता के गले में बांहें डालकर झूल गया, “क्योंकि कोई भी लड़की मेरी मां जैसी नहीं है.”

“व्हॉट नॉनसेंस? क्या बेवकूफ़ों जैसी बात कर रहा है श्लोक? दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया तुम्हारा?” सोना लगभग डांटनेवाले अंदाज़

में बोली.

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“नहीं बुआ, मेरा दिमाग़ बिल्कुल ठीक है. मुझे अपनी मां जैसी लड़की चाहिए और हां, मेरी मां जिस लड़की को पसंद करेंगी, वह लड़की मुझे भी पसंद होगी.” श्लोक ने ऐलान कर दिया.

अपने रूप के मद में चूर रूपा, सोना और श्वेता उसे ऐसे देख रही थीं जैसे वह कोई अजूबा हो. उनके गोरे-गोरे मुखड़े बिल्कुल स्याह पड़ गए और कविता… उसे तो उसके बेटे ने इस एक पल में इतना ऊंचा उठा दिया कि सारी ज़िंदगी अपमान के रेगिस्तान में झुलसती रही कविता के लिए वह एक पल जैसे मान-सम्मान और ख़ुशियों का गुलिस्तान बन गया. उसका सांवला चेहरा कुंदन की तरह दमक उठा, आंखें ख़ुशी के आवेग में बहने लगीं और उन आंसुओं के साथ उम्रभर की उपेक्षा का एहसास भी बहता चला गया.
पप्पू गोल्ड कमालपुर✍

ये राज तंत्र है…….

गुरु थे, कर्मचारी हो गए हैं ।

 दांतों फंसी सुपारी हो गए हैं ।।
महकमा सारा हमको ढूँढता है।

 हम संक्रामक बीमारी हो गए हैं ।।


इसे चमचागिरी की हद ही कहिये।

 कई शिक्षक अधिकारी हो गए हैं ।।
अकेले चार सौ को हैं नचाते।

 हम टीचर से मदारी हो गए हैं ।।
उन्हें अब चाॅक डस्टर से क्या मतलब ।

 जो ब्लॉक/संकुल प्रभारी हो गए हैं ।।
कमीशन इसमें,उसमें, इसमें भी दो।

 हम दे-दे कर भिखारी हो गए हैं ॥
मिला है MDM का चार्ज जबसे ।

 गुरुजी भी भंडारी हो गए हैं ॥
बी ई ओ ऑफिस को मंदिर समझ कर ।

 कई टीचर पुजारी हो गए हैं ॥
पढ़ाने से जिन्हें मतलब नहीं है ।

 वो प्रशिक्षण प्रभारी हो गए हैं ॥
खटारा बस बनी शिक्षा व्यवस्था ।

 और हम लटकी सवारी हो गए हैं ।
Pappu gold

Kmalpur✍